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में अक्षरशः घटित होती है, तब ऐसा उद्भासित होता है कि 'सर्वे सौरभम्' जैसा भावपूर्ण इसी के संग अनुप्राणित एवं अनुप्रीणित है।
इस प्रकार 'गणधरवाद' श्रमण भगवान महावीर की ऐतिहासिकता को आकार देने वाला, साकारता का सफलीभूत सांस्कृतिक शास्त्रीय विवरण है। 'गणधरवाद' वैदिक संस्कृति के विशद् वेद-उपनिषद् के उद्गारों से समलंकृत है और श्रमण संस्कृति के समुद्घोषों से सम्पन्न है।
आचार्य जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में 'गणधरवाद' की स्थापना कर जैन दार्शनिक तथ्यों को समुचित रूप से उजागर किया, इसलिए दार्शनिक जगत में 'गणधरवाद' का एक गरिमापूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित है। निह्नववाद
निह्नव जैन परम्परा का एक परिभाषित शब्द है। निह्नव अर्थात् अभिनिवेश के कारण आगम प्रतिपादित तात्विक परम्परा से प्रतिकूल अर्थ कर्ता है। निह्नव मिथ्यादृष्टि का ही एक विद्रुप प्रकार है। सामान्य मिथ्यात्वी और निह्नव इन दोनों में यह पर्याप्त अन्तर है कि सामान्य मिथ्यात्वी तो जिनेश्वर देव के वचनों पर श्रद्धान नहीं करता है, यदि वह जिनेश्वर देव के कथनों को जब स्वीकार करता है तब मिथ्या रूप में श्रद्धान कर लेता है।' यर्थाथ रूप में स्वीकार नहीं करता है किन्तु यथार्थ को भी अन्यथा रूप में स्वीकार कर लेता है।
मनिषी आचार्य जिनभद्रगणी ने विशेषावश्यक भाष्य में सामायिक के एकादशम द्वार समवतार पर विवेचन करते हुए स्पष्टतः कहा कि आर्यरक्षित ने आगमों की वक्तव्यता को सुरक्षित रखते हुए आगमिक विषयों को चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग के रूप में पृथकीकरण किया। तत्पश्चात् पुष्यमित्र को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जिसे गोष्ठामाहिल ने अपना अपमान समझा और संघ से पृथक होकर नवीन मान्यताओं का प्रचार प्रारम्भ किया। यही गोष्ठामाहिल सातवें निह्नव के रूप में विद्रोही बना। इसी क्रम में आचार्य ने पूर्वकालीन में हुए 6 निह्नवों की भी चर्चा की है।
' जैनआगम साहित्य, मनन और मीमांसा, देवेन्द्रमुनि, वही, पृ. 467
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