SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में गणधरों की शंकाओं का क्रम प्रस्तुत किया है किन्तु उन्होंने संक्षेप में ही इतिश्री कर दी। अथैतिक रूप में जैसी अपेक्षित सामग्री चाहिए, वैसा कुछ भी नहीं है किन्तु जो कुछ है वह महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने यह नहीं व्यक्त किया कि गणधरों के मन में चतुर्विधवेद के किस वाक्य को लेकर उस विषय में कैसे संशय हुआ? भगवान ने उनका क्या समाधान किया? प्रभु महावीर ने वेद पद का क्या अर्थ किया? नियुक्ति में इस विषय की अवगति नहीं मिलती है। केवल वादों की सूचना मात्र है। आचार्य जिनभद्र ने इस सूचना के आधार पर वाद विषयक सम्पूर्ण विचारों में तारतम्य संस्थापित कर विशेषावश्यक भाष्य के उत्तरार्द्ध में पूर्वोत्तर पक्ष की व्यवस्थित प्रणाली का अनुसरण करके गणधरवाद की संरचना की। गणधरवाद में आगमों के तलस्पर्शी अध्ययन के फलस्वरूप तत्कालीन दार्शनिकों द्वारा विशेषतः चर्चित विषयों को गणधरों की शंकाओं में सम्मिश्रित करके आत्मवाद और कर्मवाद तथा उनके विरोधी वाद, अनात्मवाद और अकर्मवाद के विषय में जैन दर्शन के अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण एवं स्याद्वादशैली से समाधान प्रस्तुत है। __ गणधरवाद में समन्वय प्रधान भावनाओं का संदर्शन होता है। भगवान महावीर सर्वप्रथम तर्क द्वारा और तदनन्तर वेदवाक्यों का यथार्थ परक अर्थ करके उनका समाधान संप्रस्तुत करते हैं, यह तथ्य महत्वपूर्ण है। सामान्यतः दार्शनिकों के विषय में यह स्पष्टतः देखा जाता है कि जब उन्हें अपनी मान्यता का प्रतिपादन करना होता है, वे प्रतिपक्षी के मत के खण्डन में ही उलझ जाते हैं और अपने सम्मुख अपनी परम्परा को ही प्रमाणभूत रखते हैं। ऐसी स्थिति में चर्चा के अन्त में दोनों वहीं के वहीं रहते मात्र द्रविड़ प्राणायाम होता हैं। किन्तु गणधरवाद में प्रतिपक्षी को पराजित करने की अपेक्षा विजयश्री अधिगत की भावना नहीं है अपितु प्रतिपक्षी को सद्बुद्धि प्रदान करने का संलक्ष्य प्रमुख है। आचार्यश्री की यह अभिरूचि जैन दर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त के अनुरूप है। यह गणधरवाद आकार की दृष्टि से जितना लघु रूप है उससे अधिक उतना ही प्रकार के रूप में विलक्षण- विशेषताओं से परिमण्डित भी है। आचार्यश्री जी ने शंका-समाधान के रूप में जो प्रस्तुति दी है, वह सर्वथा संस्कृति का विषय भी है। विषयवस्तु का सुस्पष्टीकरण और विशदीकरण के संदर्भ में इतना ही अभिव्यक्त किया जा सकता है कि बिन्दु में सिन्धु समाहित है, जब यह युक्तिपूर्ण युक्ति इस विषय 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy