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यह बात वर्तमान युग में भारतीय व पाश्चात्य चिन्तकों के समक्ष आना आवश्यक है। अतः इस शोध प्रबन्ध में किये गए विश्लेषण से न केवल जैन चिन्तकों के दार्शनिक गाम्भीर्य का ज्ञान होगा, अपितु दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदानों को भी सम्यक् रुप से समझा जा सकेगा। शोध प्रबन्ध का अध्याय क्रम इस प्रकार है -
प्रथम अध्याय में जैन आगम व व्याख्यासाहित्य का परिचय दिया गया है, इस अध्याय से यह ज्ञात होगा कि जैन आगम साहित्य कितने विशाल रूप में उपलब्ध हैं।
द्वितीय अध्याय में आत्मा के अस्तित्व पर चिन्तन किया गया है। समग्र चिन्तन का मूल केन्द्र ही आत्मा है। यदि आत्मा का अस्तित्व न हो तो कर्म-परलोक-गोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकती है। अतः जीव अस्तित्व सिद्धि व स्वरूप का चिन्तन दार्शनिक तथा वैज्ञानिक धारणाओं के परिप्रेक्ष्य में किया गया है।
तृतीय अध्याय में कर्म के अस्तित्व व प्रकारों का अध्ययन किया है, क्योंकि जगत् की विभिन्नता व विचित्रता सहेतुक है। उस हेतु को विभिन्न दर्शन अनेक नामों से अभिहित करते हैं, किन्तु जैनदर्शन में उसे “कर्म” कहा गया है।
चतुर्थ अध्याय में आत्मा और शरीर की भिन्नता को प्रतिपादित किया गया है। इस अध्याय में पाश्चात्य दार्शनिकों की विचारधाराओं का भी विषयानुकूल विवेचन किया गया
पंचम अध्याय में शून्यवाद की समीक्षा गई है, जिसमें विशेष रूप से ब्राह्यार्थ की सत्ता स्थापित कर पंचभूतों का अस्तित्व उजागर किया गया है।
षष्ठम अध्याय में इहलोक-परलोक संबंधी तत्कालीन मान्यताओं तथा जैन सिद्धान्त सम्मत मान्यता का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
सप्तम अध्याय बन्धन-मुक्ति के संदर्भ से जुड़ा है। बन्ध आवरण है, मुक्ति निरावृत्त अवस्था है, दोनों एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी है। जब तक बन्धन है, तब तक मुक्ति नहीं है, अतः बन्धन के स्वरूप व बन्ध के कारणों तथा मोक्ष के स्वरुप पर प्रकाश डाला गया है।
अष्टम अध्याय में पुण्य-पाप की चर्चा की गई है। इसमें पुण्य-पाप के स्वरुप व उनकी समानताओं और भिन्नताओं का जैन कर्म-सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में विशद विवेचन किया गया है।
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