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वर्ग दो विरोधी ध्रुवों पर स्थित हैं, अतः दो विरोधी दृष्टिकोणों को शोध का आधार बनाना समुचित प्रतीत नहीं होता, किन्तु किसी भी दर्शन की परिपूर्णता दोनों ही पक्षों को समन्वित करने पर ही सम्भव होती है। यही कारण रहा होगा कि विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में गणधरवाद के पश्चात् निह्नववाद की चर्चा की है।
पुनः चाहे तो गणधर हो, या निह्नव हो, दोनों के मन में कहीं न कहीं शंका रही हुई है, इस दृष्टि से हम यह भी कह सकते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य में इन शंकाओं के समाधान का प्रयत्न किया गया है। वह जैनदर्शन को गहनता व समग्रता से समझने के लिए आवश्यक था, इसलिए हमने प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में इन दोनों ही पक्षों को लेकर उनकी शंकाओं के जो समाधान विशेषावश्यकभाष्य में दिये गए हैं, उनका प्रस्तुतिकरण और समीक्षा करने का प्रयत्न किया है।
यह शोध कार्य इसलिए महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है कि आज तक इन दार्शनिक समस्याओं और जैनदर्शन की दृष्टि से किये गए समाधानों को न तो विद्वद्जगत् में प्रस्तुत किया है और न ही जनसाधारण में। विषय के महत्त्व को इसी आधार पर समझा जा सकता है कि - आधुनिक युग में “रेने देकार्ते" ने आत्मा के अस्तित्व के लिए जो यह तर्क दिया था, “मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ।" हमें यही तर्क विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में गौतम गणधर की शंका का समाधान करते हुए भगवान महावीर ने दिया था।
इस प्रकार आज से 2500 वर्ष पूर्व जो चिन्तन जैन दार्शनिकों ने दिया था, आज नवीन दर्शन में उसी का पुनः प्रस्तुतिकरण देखा जाता है, इस दृष्टि से यह अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी संदर्भ में जमालि निह्नव के क्रियमाण अकृत की समीक्षा करते हुए महावीर ने जो क्रियमाण कृत की अवधारणा प्रस्तुत की, वह भाषा-विज्ञान की दृष्टि से आज भी महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि चाहे हम भाषा के क्षेत्र में Present Continuous का प्रयोग करते हैं, किन्तु वर्तमान तो एक क्षण का ही होता है, उसमें किसी क्रिया की निरन्तरता सम्भव नहीं है। अतः हम यह देखते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद
और निह्नववाद के प्रकरण में अनेक दार्शनिक गुत्थियों को प्रस्तुत कर सुलझाने का प्रयास किया गया है।
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