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________________ भूमिका भारत की पावन भूमि दर्शनों की जन्म-स्थली एवं क्रीड़ा स्थली है। आदिकाल से ही इस पुण्यभूमि पर आध्यात्मिक चिन्तन और दार्शनिक विचारधारा की पावन गंगा बहती चली आ रही है। वैदिक, बौद्ध और जैनप्रभृति अनेक दार्शनिक विचारधाराएँ यहीं पर पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हुई हैं। इनकी चिन्तनधारा हिमालय के श्रृंगों से भी ऊँची, समुद्र की गहराई से भी अधिक गहन तथा आकाश से कहीं अधिक विस्तृत है। भारतीय दर्शन जीवन दर्शन है, इसमें भी जैन चिन्तनधारा का अनुपम स्थान है, जिसमें आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक तथा कर्म-पुनर्जन्म आदि दार्शनिक तत्त्वों पर गम्भीर अध्ययन और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। जैन दर्शन का चिन्तन अनेकान्त दृष्टि से युक्त है। उसने समग्र पदार्थों को अनेकान्त दृष्टि से देखा है और स्याद्वाद की भाषा में उसकी व्याख्या की है। सत्य की व्याख्या किसी एक नय से नहीं हो सकती, वह अनन्तधर्मा है। जितने दर्शन हैं, उतने ही सत्य के रूप बन गए हैं, पर जैनदर्शन का अध्ययन हमें संपूर्ण सत्य की दिशा में आगे ले जाता है और दर्शन के आकाश में छाए हुए कुहासे में देखने की क्षमता देता है। भगवान महावीर ने तथा उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए अनेकान्तदृष्टि का समग्रतः उपयोग किया और वे दार्शनिक संतुलन स्थापित करने में सफल भी हुए। उन्हीं आचार्यों की कड़ी में मणि समान विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता “आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण" हुए हैं, जिन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा से विभिन्न दर्शनों में प्रतिभासित होने वाले विरोधों में समन्वय स्थापित किया और गहनतम समस्याओं का सरलता से स्पष्टीकरण किया। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के ग्यारह अध्यायों में विशेषावश्यकभाष्य में निहित गणधरवाद व निह्नववाद की दार्शनिक समस्याओं का अन्य दर्शनों के चिन्तन सहित मूल्यांकन किया है। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि गणधरवाद में गणधर जिन जिज्ञासाओं को लेकर उपस्थित हुए थे उन्होंने अपना समाधान पाने के बाद महावीर का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया, इससे विपरीत निह्नव महावीर की दार्शनिक मान्यताओं के प्रति शंका उपस्थित करते हैं और महावीर के संघ से बहिर्भूत हो जाते हैं, इस प्रकार एक वर्ग जो महावीर के चिन्तन से सहमति प्रकट करता और दूसरा वर्ग असहमति जताता है। इस प्रकार दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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