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जीतकल्प, जीतकल्पाभाष्य अनुयोगद्वार चूर्णि, तथा ध्यानशतक विशेषावश्यक भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य - स्वोपज्ञवृत्ति
इन सब तथ्यों के अतिरिक्त उनके जीवन से सम्बन्धित और कोई विशेष प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं, तथापि उनके गुणों का वर्णन अवश्य उपलब्ध होता है। जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेन गणि भी अपनी चूर्णि के प्रारम्भ में आ. जिनभद्र के गुणों का वर्णन करते हैं तथा आचार्य हेमचन्द्र ने 'उपजिनभद्र क्षमाश्रमण व्याख्यातारः' कहकर जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण के प्रति विशेष आदर भाव प्रकट किया है एवं व्याख्याकार आचार्यों में उनको उत्कृष्ट बताया है।
विशेषावश्यक भाष्य की विषय वस्तु
जिनभद्रगणि ने अपने जीवनकाल में अनेक ग्रन्थों की रचना की, उन ग्रन्थों में विशेषावश्यकभाष्य सर्वाधिक गरिमापूर्ण संरचना है। यह वह रचना है जिसमें विषयवस्तु सविस्तृत वर्णित है, यह अतिस्पष्ट है कि जिन विषयों का निरूपण जैन परम्परा से संदर्भित अन्य ग्रन्थों में नहीं है, वह इसमें समग्रत है।
आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य निर्मित हुए हैं - (1) मूल भाष्य (2) भाष्य और (3) विशेषावश्यकभाष्य। प्रथम दो भाष्य संक्षिप्त हैं किन्तु यह विशेषावश्यकभाष्य पूर्ववर्ती दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रस्तुत भाष्य केवल प्रथम अध्ययन सामायिक पर हैं। इसमें 3603 गाथाएँ हैं। इसमें विषयवस्तु इस रूप से सविस्तृत प्रतिपादित है - 1-3 ग्रन्थकर्ता ने सर्वप्रथम प्रवचन को नमस्कार किया है, उसके अनन्तर आवश्यक के
फल के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए ज्ञान और क्रिया के संदर्भ में विवेचना की है। श्रेष्ठ कार्य में विध्न उपस्थित न हो इस के दृष्टि से मंगल विधान किया है। मंगलशब्द पर निक्षेप दृष्टि से गहन चिन्तन हुआ है। ज्ञान भावमंगल है, अतः पांच
' जैनागम साहित्य मनन और मीमांसा, वही, पृ. 462-468
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