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सम्बन्ध में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं। उनके महत्वपूर्ण ग्रन्थों तथा उनके आधार पर लिखे गये विवरणों को देखकर ही बाद के आचार्यों ने उचित महत्व देकर आचार्य परम्परा में सम्मिलित करने का प्रयास किया।
आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति शक संवत 531 में लिखी गई तथा वल्लभी के एक जैन मन्दिर में समर्पित की गई। प्रति से प्रतीत होता है कि उनका सम्बन्ध वल्लभी से होना चाहिए। अकोटा गांव से प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के आधार पर फलित होता है कि उनके कुल का नाम निवृत्तिकुल था, और उन्हें वाचनाचार्य कहा जाता था। नवांगकृति संशोधक द्रोणाचार्य, सूराचार्य, गर्गाष, दुर्गार्ष, उपमितिभवप्रपंचकथा रचनाकार सिद्धार्षि जैसे प्रभावशाली आचार्य इसी निवृत्ति कुल से सम्बद्ध रहे, निवृत्ति कुल का सम्बन्ध वज्रसेन के शिष्य निवृत्ति से रहा है। निवृत्तिकुल कैसे प्रसिद्ध हुआ इसके लिए जिस कथानक का आधार लिया जाता है वह निम्नानुसार है -
इसी सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि क्षमाश्रमण और वाचनाचार्य इन दानों में अर्थ की दृष्टि से भिन्नता नहीं है। वाचनाचार्य के स्थान पर जिनभद्र के लिए क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग किया गया है।
भगवान महावीर के 17वें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और ईश्वरी के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी, उनके नाम थे - नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधन। आगे जाकर इनके नाम से भिन्न-भिन्न चार परम्पराएं प्रचलित हुई।
___ जैसलमेर भण्डार से पुरातत्त्ववेता मुनि श्री जिनविजय जी को विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति प्राप्त हुई, उस प्रति के अन्त में दो गाथाएं हैं, उनमें लिखा है कि भाष्य का रचनाकाल वि.सं. 666 है। विशेषावश्यक भाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम रचना है, इस प्रकार उनका उत्तरकाल वि.सं. 650-666 के मध्यवर्ती होना चाहिए।
आचार्य जिनभद्र की निम्न 9 रचनाएँ प्राप्त होती हैं - बृहत्संग्रहणी, बृहत्क्षेत्रसमास विशेषणवती
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