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यथार्थ अर्थ में यह वह ग्रन्थ है जो जैनज्ञानमहोदाधि के रूप में रूपायित है इस कथन में अणु मात्र भी भावुकता व अतिशयोक्ति नहीं है। जैन परिभाषाओं को स्थिर रूप प्रदान करने में इस ग्रन्थ को जो एकमात्र श्रेय प्राप्त है, वह इस ग्रन्थ के बहुविध प्रकरण इस स्तर पर हैं, जो स्वतंत्र ग्रन्थ के समान हैं, जैसे - पांच ज्ञान चर्चा, गणधरवाद, निन्ह्ववाद, नयाधिकार, नमस्कारप्रकरण, सामायिक विवेचन, तथा अन्य कई प्रकरण हैं।
इस प्रकार जैन आगमिक व्याख्या-साहित्य में विशेषावश्यक भाष्य का न केवल महत्वपूर्ण अपितु गौरवपूर्ण स्थान है। ग्रंथकर्ता का परिचय -
जैन परम्परा के इतिहास में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का अपना गौरवपूर्ण स्थान है। यह स्थान इसलिए है कि उन्होंने जैन साहित्य को समृद्ध करने में मूल्यवान, प्राणवान और अर्थवान योगदान दिया है। भारतवर्ष के विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के प्रणेताओं में जब-जब भी मौखिक और संरचना के क्षेत्र में दर्शन जैसे विषय पर वाकयुद्ध अथवा रचनायुद्ध प्रारम्भ हुआ, तब उन सभी के समक्ष सर्वप्रथम आचार्य जिनभद्र जैन प्रतिमल्ल के स्थान पर प्रतिष्ठित हुए। आपश्री की सर्वोत्कृष्ट विशेषता यह है कि उन्होंने दर्शन के सामान्य स्तरीय तत्वों के विषयों में ही तर्कवाद का आधार नहीं लिया, किन्तु जैनदर्शन की प्रमाण-प्रमेय सम्बन्धी सामान्य-असामान्य सर्व तथ्यों के विषय में तर्कवाद का प्रचूर प्रयोग कर दार्शनिक क्षितिज पर जैनदर्शन को सर्वतंत्र स्वतंत्र रूप में ही नहीं, प्रत्युत स्वतंत्र समन्वित रूप में सहस्रकिरण दिनकर के रूप में रूपायित किया है। उनकी तर्कशैली में निर्मित युक्तियाँ इतनी अधिक व्यवस्थित हैं कि अष्टम शताब्दीकालीन युगप्रधान महान दार्शनिक हरिभद्र तथा द्वादशम शताब्दी में समुत्पन्न आगमों के सर्वथा समर्थ टीकाकार मलयगिरी भी ज्ञान चर्चा में उन युक्तियों को आधारभूत के रूप में स्वीकार करते हैं। सप्तम शताब्दी में आचार्य जिनभद्रगणि ने सम्पूर्ण रूपेण प्रतिमल्ल का कार्य ऐतिहासिक रूप से सम्पन्न किया है जिससे जैनाचार्यों की मणिमाला गौरवान्वित हो उठी है।
इस सन्दर्भ में यह उल्लेख भी विस्मयजनक ही नहीं, अपितु खेद-खिन्न रूप है कि उस युग के सर्वमान्य महतो-महीयान आचार्य के विषय में जीवन से संदर्भित आवश्यक सत्य तथ्य भी संप्रति उपलब्ध नहीं है। वे कब हुए? और किनके शिष्य थे? इस
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