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जय-धवलाटीका
आचार्य वीरसेन ने कषायपाहुड़ पर जयधवला टीका लिखना प्रारम्भ किया था, 20 हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखने के पश्चात् उनका स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् इस कार्य को उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने पूर्ण किया, उन्होंने 40 हजार श्लोकों की रचना की। इस प्रकार इस टीका का विस्तार 60 हजार श्लोक प्रमाण है ।
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इस ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण विशेषताऐं निम्नानुसार हैं
राग-द्वेष का विस्तृत विवेचन इस दृष्टि से किया है जिससे व्यक्ति दूर रहे । कर्मसिद्धान्त का गहन एवं सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की स्थितियों का निरूपण है ।
जीव की संख्या का विभिन्न प्ररूपणाओं द्वारा विवेचन किया गया है । '
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विशेषावश्यकभाष्य का सामान्य परिचय
आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण रचित विशेषावश्यक भाष्य एक अद्वितीय एवं अप्रतिम ग्रन्थ है। आगम व्याख्या साहित्य के सम्बन्ध में निर्युक्तियां, चुर्णियाँ तथा टीकाएँ निर्मित हुई हैं, अनेक मनिषी आचार्यों ने व्याख्या साहित्य की सर्जना की है, परन्तु जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की यह सारस्वत संरचना जैन परम्परा के आचार-विचार से सम्बन्धित बहुविध विषयों को संस्पर्श करती है तथा आगमिक दृष्टिकोण से तर्क पुरस्कार समाधान भी प्रस्तुत कर देती है। यह संभावित दर्शनान्तरों के मन्तव्यों की समालोचना करने वाला एक बृहदाकार ग्रन्थ है ।
आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का स्थान व महत्व
समग्र जैन आगम साहित्य में 'आवश्यक सूत्र' एक महत्वपूर्ण आगम है । यद्यपि प्राचीन पद्धति के अनुसार आवश्यक सूत्र को अंगबाह्य उत्कालिक सूत्रों में गृहित किया है किन्तु इसमें श्रमणाचार और श्रावकाचार की उन आवश्यक क्रियाओं का निरूपण किया गया है जिनकी उन्हें प्रतिदिन आवश्यकता होती है। इसीलिए इस ग्रंथ का नाम 'आवश्यकसूत्र' रखा गया ।
प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, नैमिचन्द्र शास्त्री, वही, पृ. 218
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