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दर्शनपाहुड़ इसमें धर्म के मूलभूत सम्यग्दर्शन का विवेचन किया है। सम्यग्दर्शन से परिभ्रष्ट व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त नहीं हो पाता है। इस ग्रंथानुसार सम्यक्त्व - विषयसुख का विरेचक और समस्त दुःखों का नाशक है। इसमें 36 गाथाएँ हैं ।
चारित्तपाहुड़
इसमें चारित्र एवं उसके प्रकारों के सम्बन्ध में प्ररूपणा की है । सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं। सम्यक्त्वाचरण चारित्र तथा संयमाचरण चारित्र । इस पाहुड़ में दो प्रकार चारित्रों के भेदोपभेदों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। सुत्तपाहुड़ जैसे सूत्र अर्थात धागा, धागे से युक्त सुई गुम नहीं होती, वैसे ही श्रुत का ज्ञाता संसार में भटकता नहीं है। इसमें श्रुतज्ञान के महत्व एवं सूत्रों की उपादेयता का निरूपण है तथा द्वादशांग एवं अंगबाह्य रूप श्रुत का वर्णन है ।
बोधपाहुड़ इसमें आयतन-चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, आत्मज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रव्रज्या आदि का विवेचन किया गया है।
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भावपाहुड़ भाव अर्थात परिणाम की विशुद्धि । गुण और दोष दोनों का मूल स्रोत भाव है। बाह्य परिग्रह के परित्याग का लक्ष्य भी भावशुद्धि ही है । चित्त शुद्धि के अभाव तप भी सिद्धि में प्रदान नहीं करता है। अतः इस प्राभृत में भाव की प्रधानता पर बल दिया गया है ।
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मोक्षपाहुड़ इस प्राभृत में आत्मतत्व विवेचन, बन्धकारण एवं बन्धनाश का निरूपण, आत्म-ज्ञान की विधि, रत्नत्रय का स्वरूप एवं परमपद की प्राप्ति का वर्णन है। इसमें आत्मा के ( बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा) तीन प्रकारों का
निरुपण है ।
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लिंगपाहुड़
लिंग पाहुड़ में श्रमणलिंग रूप मुनिधर्म का निरूपण किया गया है, भावलिंग रूप साधुता से रहित द्रव्यलिंग व्यर्थ है, इस प्रकार इसमें लिंग को द्रव्य और भावरूप से विवेचित किया है ।
शीलपाहुड़ इस प्राभृत में शील का महत्व प्रतिपादित है । शील के द्वारा ज्ञान प्राप्ति एवं ज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का निरूपण है । जीवदया, इन्द्रियदमन, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप को शील के अन्तर्गत ही परिगणित किया है ।
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