________________
2.
1. जीवस्थान --- इस खण्ड में जीव के भेद-प्रभेदों का विशेषरूप से वर्णन दिया
गया है। क्षुद्रकबन्ध - “जे ते बन्धगा णाम तेसिमिमो णिद्देसो” सूत्र से प्रारम्भ होने वाले इस खण्ड में बन्धक अधिकार के बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान नामक चार अनुयोगों में बन्ध का निरूपण है। लघु होने के कारण इस भाग को "क्षुद्रक" कहा जाता है। बन्धस्वामित्वविचय - बन्ध के स्वामी का विचार किया गया है कि कौन सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान और मार्गणा में सम्भव है। वेदनाखण्ड - कर्मों की वेदना द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा किस प्रकार उत्कृष्ट और जघन्य रूप होती है, इसका विवेचन किया गया है। वर्गणाखण्ड - विपाक अथवा अनुभव कराने वाले पुद्गल स्कन्ध ही बन्धनीय होते हैं और वे वर्गणारूप हैं, इसका विवेचन है। तथा महाबन्ध - इस खण्ड में प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध का विस्तृत वर्णन है।
प्राणी यदि कर्मों के स्वरूप को समझ लेता है तब उसे यह ज्ञान हो जाता है कि शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता मैं स्वयं ही हूँ, वह सावधान रहता है, जिससे गाढ़ कर्मों का बन्ध नहीं हो पाता अपितु कर्मों को विनष्ट करने में तत्पर रहता है तथा मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। यही षटखण्डागम का मूलभूत प्रतिपाद्य विषय है।
कषायपाहुड़
कषायपाहुड़ का उद्गम दृष्टिवाद नामक द्वादशम अंग से है। ज्ञानप्रवाद नामक पांचवे पूर्व की दसवीं वस्तु के 'पेज्जदोष' नामक तृतीय प्राभृत से कषायप्राभृत की उत्पत्ति हुई। इसके रचयिता आचार्य गुणधर हैं।
___ अष्टविध कर्मों में सर्व प्रधान मोहनीयकर्म है, उसके दो भेद हैं - दर्शनमोह और चारित्र मोह। चारित्रमोह के भेद कषाय, नोकषाय आदि हैं। इस ग्रन्थ में मोहनीय कर्म का
' (क) डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृतभाषा व साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, वही, पृ. 202
(ख) शास्त्री, कैलाशचन्द्र जी, जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 59-60 ' मेहता, मोहनलाल, जैनसाहित्य का वृहद् इतिहास, वही, पृ. 89
__41 For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org