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उनके समीप 500 छात्र अध्ययन के लिए रहते थे। उनके व्यापक प्रभाव से प्रभावित होकर सोमिलार्य ने महायज्ञ का नेतृत्व उनके हाथों में सौंपा था। 50 वर्ष की आयु में श्रमण भगवान महावीर के सान्निध्य में गये। वहाँ उनके मन में ही शंका का प्रकटीकरण हुआ, तब वे आश्चर्यचकित हो गये, उनका गर्व विगलित होने लगा। भगवान महावीर की अतिशय युक्त अमोघवाणी के प्रभाव से अन्तर में अनिवचनीय दिव्य ज्ञानालोक का अनुभव किया।
, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक त्रिपदी के रूप में समस्त विश्व के त्रिकालवर्ती संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान की कुंजी प्राप्त कर वेद-वेदांग के पारंगत विद्वान् इन्द्रभूति गौतम आदि के अन्तर में रुंधे हुए ज्ञान के समस्त स्रोत अजस्ररुपेण फूट पड़े, और ज्ञान का अथाह सागर हृदय में हिलोरें लेने लगा। उनके हृदय की समस्त कुंठाएँ, रिक्तताएँ, शंकाएँ, अनिश्चितताएँ एवं सभी प्रकार की कमियाँ क्षण भर में ही दूर हो गईं। जिससे वे समग्र श्रुत-ज्ञान सागर के विशिष्ट वेत्ता बन गये। उन्होंने सर्वप्रथम 14 पूर्वो की रचना की। तत्पश्चात् अंगशास्त्रों की रचना की।
इन्द्रभूति गौतम ने 50 वर्ष की उम्र में संयम स्वीकार किया, 30 वर्ष तक छद्मस्थ रहे और 12 वर्ष जीवनमुक्त केवली के रूप में। गुणशील चैत्य में मासिक अनशन करके 92 वर्ष की उम्र में निर्वाण को प्राप्त हुए।
इन्द्रभूति गौतम के लिए कहा जाता है कि - "अहंकारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये। विषादः केवलायाभूत् चित्रं श्री गौतम प्रभोः ।।"
संसार के प्राणियों के लिए अहंकार, राग और विषाद नितान्त अनर्थकारी हैं, पर बड़े आश्चर्य की बात है गौतमस्वामी के लिए तो ये तीनों महान लाभकारी सिद्ध हुए। अहंकार उन्हें शास्त्रार्थ हेतु भगवान महावीर के पास लाया और उनकी बोधप्राप्ति में सहायक बना। राग के कारण उनके हृदय में गुरुभक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गई और वे गुरुभक्ति के प्रतीक माने जाने लगे। भगवान महावीर के निर्वाण से उनके अन्तर में हुआ विषाद भी केवलज्ञान उपलब्धि में निमित्त बना।
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