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नोइन्द्रिय, नोकर्म आदि की अवधारणाएँ कही हुई हैं। सामान्यतया इसी आधार पर रोहगुप्त ने नोजीव की कल्पना की होगी। उसकी मान्यता यह थी कि शरीर न तो जीव कहा जा सकता है और न अजीव, अतः वह नोजीव है। जैन दार्शनिकों ने उसे नोकर्म कहा भी है, किन्तु इस अवधारणा की तार्किक असंगति यह है कि मूल में तो राशियाँ दो ही हो सकती हैं, जिसमें दोनों मूल राशियों का समन्वय देखा जा सकता है, उसे स्वतंत्र राशि या वर्ग नहीं माना जा सकता। इसलिए जैन दार्शनिक ने रोहगुप्त के त्रैराशिकवाद को अस्वीकार किया ।
सप्तम निह्नव गोष्ठामाहिल अबद्धिकवाद का प्रस्तोता था, उसकी मान्यता यह थी कि जीव और कर्मपुद्गल दो स्वतंत्र तत्त्व हैं, वे एक-दूसरे में अनुस्यूत नहीं हो सकते हैं। अतः कर्म पुद्गल आत्म- प्रदेशों का मात्र स्पर्श करते हैं, उससे बद्ध नहीं होते। दो स्वतंत्र द्रव्य होने के कारण उनका परस्पर संस्पर्श हो सकता है किन्तु एक-दूसरे में अनुस्यूत नहीं हो सकते। गोष्ठामाहिल का यह अबद्धिकवाद निश्चयदृष्टि से कुन्दकुन्द आदि जैनाचार्यों को मान्य रहा है, किन्तु एकान्त निश्चयनय का आधार लेने के कारण अनेकान्त दृष्टि का विरोधी हो जाता है। दूसरे, यदि हम अबद्धिकवाद के सिद्धान्त को स्वीकारते हैं तो जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त और आत्मा के बन्धन मुक्ति की अवधारणाएँ तार्किक आधार पर चरमरा जाती हैं। जो कि जैन धर्म-दर्शन का प्राण मानी जाती हैं । व्यावहारिक स्तर पर हम देखते हैं कि जब चांदी और स्वर्ण इन दो धातुओं को पिघलाकर मिलाया जाता है तो वे एक-दूसरे में अनुस्यूत प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि स्वर्ण परमाणु में स्वर्ण परमाणु रहते हैं और चाँदी के परमाणु में चाँदी के ।
नैश्चयिक आधार पर इन दोनों को एक-दूसरे से एक दूसरे में अनुस्यूत नहीं माना जा सकता । किन्तु हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि उनकी मिश्रित रूप में प्रतीति नहीं होती । अतः जैन दार्शनिकों ने गोष्ठामाहिल के ऐकान्तिक अबद्धिकवाद को अस्वीकार किया ।
इस प्रकार जैन आचार्यों ने विशेषावश्यकभाष्य में इन निह्नवों की अवधारणा की गहन तार्किक समीक्षा जनमानस को एक सम्यक् दार्शनिक दृष्टि प्रस्तुत की। चाहे वे समस्याएँ एक संतुलित दृष्टि के आधार पर उनका सम्यक् समाधान प्रस्तुत करता है, यही इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है। वस्तुतः आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का जो
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