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महत्त्व है, वह इसी कारण है, उसमें हमें स्वपक्ष और परपक्ष की अवधारणाओं का गहन विश्लेषण और संतुलित समीक्षा उपलब्ध होती है। दार्शनिक विश्लेषण और समीक्षा की दृष्टि से सिद्धसेन के 'सन्मति तर्क' के पश्चात यदि कोई गम्भीर ग्रन्थ हमें कोई उपलब्ध है तो वह विशेषावश्यकभाष्य है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में मैंने इसी ग्रन्थ को आधारभूत मानकर इसमें प्रस्तुत गणधरों की जिज्ञासा और निह्नवों की मान्यता का सम्यक् अनुशीलन करने का प्रयत्न किया। हम अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल या असफल हुए हैं, यह निर्णय करना विद्वद्जनों का कार्य है। किन्तु मैं इतना अवश्य कह सकती हूं कि मैंने अपनी पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से इन मन्तव्यों के प्रस्तुतिकरण और समीक्षा का प्रयत्न किया है।
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