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पाश्चात्य चिन्तकों के द्वारा सामान्यतया भारतीय दर्शन और विशेषरूप से जैन दर्शन में यथास्थितिवाद का आरोप लगाया, वह खण्डित हो जाता है व निरस्त हो जाता है। इन निह्नवों के मुख्य रूप से दो वर्ग किये गये। प्रथम वर्ग जैसे जमालि, रोहगुप्त तथा गोष्ठामाहिल, अपनी दार्शनिक स्थापनाओं पर अपने जीवनपर्यन्त स्थित रहे, किन्तु शेष जैसे कि तिष्यगुप्त, आषाढ के शिष्य, अश्वमित्र, गंग जिन्होंने अपनी दार्शनिक मान्यता की असंगति को समझा और जैन दर्शन की मूलभूत अवधारणाओं को पुनः अपना लिया। निह्नवों का जैन संघ में आविर्भाव इस बात का सूचक है कि उस युग में दार्शनिक चिन्तन की स्वतंत्रता रही हुई थी। अब जहाँ तक इन निह्नवों की दार्शनिक स्थापनाओं की समीक्षा का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि जमालि ने जिस बहुरतवाद की स्थापना की थी वह व्यावहारिक आधार पर तो यथार्थ प्रतीत होता है किन्तु उसकी महत्त्वपूर्ण विसंगति यह है कि वह वर्तमान को व्यापक मान लेता है, जबकि वर्तमान मात्र एक क्षणिक ही होता है, जन साधारण में उसका सिद्धान्त व्यावहारिक दृष्टि से सत्य प्रतीत हो सकता है किन्तु जब उसे तार्किक कसौटी पर कसा जाता है तो उसकी असंगति स्पष्ट हो जाती है। जो क्रिया वर्तमान क्षण में अकृत हो तो वह किसी भी क्षण कृत नहीं हो सकती, इसीलिए भगवान महावीर ने क्रियमाण को कृत माना है।
इसी प्रकार तिष्यगुप्त की चरम प्रदेशी जीववाद की अवधारणा भी दार्शनिक दृष्टि से समुचित प्रतीत नहीं होती, वस्तु का अस्तित्व अपनी समग्रता में होता है। वस्तु के सम्यक् स्वरूप को समझने के लिए विश्लेषणात्मक दृष्टि की अपेक्षा संश्लेषणात्मक समग्र दृष्टि आवश्यक होती है। तिष्यगुप्त की अवधारणा केवल विश्लेषणात्मक दृष्टि को लेकर चल रही थी, जबकि महावीर विश्लेषणात्मकता के साथ संश्लेषण व समग्रता को भी वस्तु स्वरूप के निर्णय के संदर्भ में आवश्यक मानते हैं।
आषाढ़भूति के शिष्यों का अव्यक्तवाद वस्तुतः भगवान महावीर के युग के अज्ञानवाद का ही एक रूप था। किन्तु इससे फलित सन्देहवाद व्यक्ति को किसी भी सिद्धान्त और मान्यता पर स्थित नहीं होने देता। सन्देहवादी जीवन दृष्टि व्यवहार के क्षेत्र में भी सफल नहीं हो पाती। गीता का यह कथन कि “संशयात्मक विनश्यति । इस सिद्धान्त की असंगति को स्पष्ट कर देता है। यह सर्वत्र अविश्वास की भावना को उत्पन्न करता है, जिससे पारस्परिक विश्वास भी भंग हो जाता है। यही कारण था कि जैनाचार्यों
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