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________________ फिर भी इतना अन्तर अवश्य है कि जहाँ भारतीय धर्म और दर्शन पुनर्जन्म की अवधारणा के आधार पर यह मानते हैं कि व्यक्ति को बार-बार अपने सुधार के लिए अवसर प्रदान किये जाते हैं, वहाँ यहुदी, इसाई और ईस्लाम केवल इस मानव जीवन को ही अपने भविष्य के निर्माण का एकमात्र अवसर मानते हैं, उसके बाद व्यक्ति को अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार नरक या स्वर्ग में भेज दिया जाता है। इस एक अन्तर को छोड़कर शेष समस्त धर्मदर्शन में पुनर्जन्म, परलोक, स्वर्ग, नरक की अवधारणाएँ उपस्थित हैं। इस अवधारणा की मूलभूत उपादेयता यह है कि यह व्यक्ति को अशुभ से निवृत्ति और शुभ से प्रवृत्ति की प्रेरणा देती है। चाहे स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय, जैसा कि हमने पूर्व में लिखा - नैतिक दृष्टि से अनुचित ही क्यों न हो, उसकी व्यावहारिक सार्थकता ले हम इन्कार नहीं कर सकते। यदि स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय मनुष्य को सद्प्रवृत्ति से प्रेरित और दुष्प्रवृत्तियों से विमुख करता है तो उसकी उपादेयता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार प्रशासन के क्षेत्र में पुलिस और न्यायपालिकाएँ किसी सीमा तक व्यक्ति की अपराधवृत्तियाँ को अंकुश लगाते हैं, उसी प्रकार पुनर्जन्म, परलोक और स्वर्ग-नरक की अवधारणाएँ भी व्यक्ति की आपराधिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाती हैं। इस प्रकार उनकी सामाजिक दृष्टि से उपादेयता स्पष्ट हो जाती है। यदि कोई अवधारणा हमारे किसी व्यवहार को नियंत्रित करती हैं या कुछ करने के लिए प्रेरित करती हैं तो उसकी महत्ता व मूल्यवत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का दसम अध्याय विभिन्न निह्नवों की दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा से सम्बन्धित है। जैन परम्परा में निह्नव उन्हें कहा जाता है जो जैन संघ की आचार-व्यवस्था को स्वीकार करते हुए भी जैन दर्शन की दार्शनिक अवधारणाओं से किसी अर्थ में मतभेद रखते हैं। जैन संघ में महावीर के जीवनकाल से लेकर उनके निर्वाण के 584 वर्ष की अवधि के मध्य 7 निह्नव हुए थे, इन निह्नवों में जमालि ने बहुरतवाद की, तिष्यगुप्त ने चरमप्रदेशी जीववाद की, आषाढ़भूति ने अव्यक्तवाद की, अश्वमित्र ने समुच्छेदवाद की, आर्य गंग ने द्विक्रियावाद की, गोष्ठामाहिल ने अबद्धिकवाद की और रोहगुप्त ने त्रैराशिकवाद की स्थापना की। जैन संघ में निह्नवों की इस अवधारणा से एक बात बहुत स्पष्ट होती रही कि जैन दर्शन सदैव ही गतिशील रहा है, उसमें नये-नये चिन्तन उभरते रहे, इसलिए 486 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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