________________
कहीं न कहीं व्यक्ति को स्वार्थवृत्ति से ऊपर उठाकर परार्थ के हित प्रेरित करती है और यही इस प्रवृत्ति की सामाजिक सार्थकता है और उपादेयता है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का नवम अध्याय परलोक के अस्तित्व और पुनर्जन्म की अवधारणा से सम्बन्धित है। गणधर मैतार्य, की मूलभूत अवधारणा यह थी कि परलोक का अस्तित्व नहीं है। वे आत्मा की अनित्यता के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा को भी स्वीकार नहीं करते थे। परलोक की अवधारणा के लिए सर्वप्रथम आत्मा की नित्यता को स्वीकार करना आवश्यक है। उसे स्वीकार किये बिना पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं बन पाती है। पुनर्जन्म के लिए परलोक को मानना भी आवश्यक है, चुंकि पुण्य और पाप की यह अवधारणा मान कर चलती है कि परोपकारजन्य प्रवृति का परिणाम सुखद और परपीडनजन्य प्रवृति का परिणाम दुखद होता है। क्रमश: इन सुखद-दुखद परिणामों के भोग के लिए स्वर्ग-नरक की अवधारणाएँ अस्तित्व में आई। गणधर मौर्यपुत्र स्वर्ग के अस्तित्व को तथा गणधर अकम्पित जी नरक के अस्तित्व को नकारते थे। इस प्रकार इन तीनों गणधरों की मूलभूत जिज्ञासा परलोक और पुनर्जन्म के सम्बन्ध में ही थी, इसी कारण मैंने प्रस्तुत गवेषणा में इन तीनों समस्याओं को परलोक से अस्तित्व की समस्या में अन्तर्भूत मानकर इन पर एक ही साथ विचार किया।
पुनर्जन्म, परलोक तथा स्वर्ग और नरक की इन अवधारणाओं की व्यक्ति और समाज के लिए क्या प्रासंगिकता है, यह विचारणीय प्रश्न है। पुनर्जन्म की अवधारणा, कर्म-सिद्धान्त और पुण्य-पाप की अवधारणा के आधार पर है। पुनर्जन्म की अस्वीकृति के साथ ही कर्म-सिद्धान्त और पाप-पुण्य की अवधारणा चरमरा जाती है। अतः धार्मिक और दार्शनिक दृष्टि से यदि कर्म-सिद्धान्त पर विश्वास करना है तो यह मानकर चलना होगा कि पुनर्जन्म होता है। विश्व के धर्म और दर्शनों में यहुदी, इसाई और ईस्लाम धर्म सामान्य अर्थ में पुनर्जन्म को अस्वीकार करते हैं किन्तु वे भी इतना तो अवश्य मानते हैं कि व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों का फल स्वर्ग और नरक के माध्यम से मिलता है।
अतः उनमें भी इस शरीर के छोड़ने के बाद यह तो माना ही गया है कि यदि व्यक्ति ने शुभ कर्मों का संचय किया है तो व्यक्ति को स्वर्ग में और यदि अशुभ कर्मों का संचय किया है तो सदैव के लिए नरक में भेज दिया जायेगा। इस प्रकार सभी धर्म-दर्शन किसी न किसी रूप में परलोक, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक की कल्पना को लेकर चलते हैं।
485
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org