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________________ जीवन में एक सामंजस्य, समरसता और अविकलता को जन्म देती है, अतः बन्धन और मुक्ति की इस अवधारणा की समसामयिक जीवन में भी उपादेयता रही हुई है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का अष्टम अध्याय पुण्य-पाप की अवधारणा से सम्बन्धित है। नवम गणधर अचलभ्राता भगवान महावीर के समक्ष इसी जिज्ञासा को लेकर उपस्थित हुए थे कि क्या पुण्य और पाप की कोई सत्ता है? जैन कर्मसिद्धान्त यह मान कर चलता है कि व्यक्ति की दैहिक वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियाँ कर्म के आस्रव के कारण हैं। यदि ये प्रवृत्तियाँ योगमूलक या परमार्थ के निमित्त होती हैं तो वे पुण्य का आस्रव करती हैं। यदि वे दूसरों के अहित के लिए होती हैं तो पाप का आस्रव करती हैं। दूसरों के हित का सम्बन्ध पुण्य से है और अहित का सम्बन्ध पाप से है – “परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्” पुण्य। पुनः शुभ प्रवृत्तियों से जो बन्ध होता है वह पुण्य बन्ध के रूप में जाना जाता है और उसका विपाक भी पुण्य कहलाता है, जबकि पापकारी प्रवृत्तियों से पाप का ही बन्ध होता है और उसका विपाक भी व्यक्ति के अमंगल का हेतु होता है। पुण्य और पाप की यह अवधारणा अत्यन्त सरल शब्दों में कहे तो इस सुक्ति पर टिकी हुई है – “भला कर भला होगा, बुरा कर बुरा होगा। जहाँ तक पुण्य-पाप की इन अवधारणाओं में सामाजिक परिप्रेक्ष में विचार करने का प्रश्न है तो यह व्यक्ति को लोक-मंगल के लिए प्रेरित करने का सन्देश देती है। परोपकार या लोकमंगलकारी प्रयत्न आज भी हमारे सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। पुण्य प्रत्येक व्यक्ति को स्वार्थमय संकुचित दृष्टि से ऊपर उठाकर उसे समस्त कार्यों के हित के लिए प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देता है। पुण्य और पाप की इस अवधारणा में जो यह माना गया कि पाप प्रवृत्तियाँ एक ओर दूसरों के अमंगल का कारण बनती हैं वहीं वे अपने विपाक के रूप में व्यक्ति का ही अमंगल करती हैं, जबकि शुभ प्रवृत्तियाँ हमें परोपकार और लोकमगल के लिए प्रेरित करती हैं और उसके विपाक के रूप में उसका अपना जीवन भी मंगलमय बनता है। संक्षेप में परपीड़न की प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए प्रयत्न व पुरुषार्थ करना, पुण्य-पाप की अवधारणा की मूलभूत प्रेरणा है। सामाजिक लोककल्याण या परोपकार की वृति ही आज विश्व में शान्ति और सौहार्द की स्थापना कर सकती हैं। इस प्रकार पुण्य और पाप की यह अवधारणा 484 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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