________________
आवरणों को स्वीकार करना। किन्तु व्यावहारिक स्तर पर हमें यह मानना होगा कि मात्र बन्धन की स्वीकृति से व्यक्ति के पुरुषार्थ का अनावरण सम्भव नहीं है। बन्धन एक यथार्थता है और मुक्ति एक सम्भावना है। यथार्थ को स्वीकार करके निष्क्रिय नहीं होना है अपितु पुरुषार्थ या प्रयत्नपूर्वक आदर्श का अनावरण करना है। बन्धन और मुक्ति की इस अवधारणा में पुरुषार्थ का सम्यक्रथान रहा हुआ है। बन्धन और मुक्ति के सम्बन्ध में प्रस्तुत विचारणा वस्तुतः व्यक्ति के पुरुषार्थ का ही सन्देश देती है। वस्तुतः बन्धन के लिए भी स्वयं ही उत्तरदायी है और मुक्ति भी स्वयं ही प्राप्त कर सकता है, किसी कवि ने ठीक ही कहा है - स्वयं बंधे हैं, स्वयं खुलेंगे,
सखे! न बीच में बोल। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में व्यक्ति को अपने दायित्व बोध के साथ पुरुषार्थ की प्रेरणा देता है, और यही बन्धन और मुक्ति के चिन्तन की उपादेयता है।
एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो बन्धन का अर्थ स्व की सीमा का संकुचन है, वह एक प्रकार की स्वार्थपरता का ही एक रूप है। बन्धन का कारण राग है। राग व्यक्ति को जहाँ कुछ से जोड़ता है वहीं दूसरे से तोड़ता भी है। रागात्मकता के कारण मेरे और पराये की भावना उत्पन्न होती है। “अयं निज परो वेति गणनालघुचेतसाम्” और इस प्रकार राग का तत्त्व व्यापक सामाजिक और मानवीय दृष्टि में बाधक है। आज विश्व में
जो भी तनाव और संघर्ष हैं, उनके मूल में मेरे और पराये का भाव ही है। 'मेरी जाति', 'मेरा धर्म', 'मेरा राष्ट्र' ये सब कहीं न कहीं व्यक्ति को संकुचित बनाते हैं। 'मैं' और 'मेरा' ये दो ऐसे तत्त्व हैं जिनके कारण परिवार, समाज और राष्ट्र में तनाव उत्पन्न होते हैं। मुक्ति या निर्वाण का बहुत ही सरल तात्पर्य है कि व्यक्ति इच्छा और आकांक्षाजन्य तनावों से मुक्त हो। कषाय और तृष्णा से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है। इस दृष्टि से यदि हम देखें तो मुक्ति की वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से सार्थकता सिद्ध होती है। मुक्ति का एक अर्थ स्व के संकुचित घेरे से उपर उठना है। इस प्रकार मुक्ति एक व्यापक दृष्टि का परिचायक है। मुक्ति का सम्बन्ध केवल पारलौकिक जीवन से ही नहीं बल्कि वर्तमान जीवन से भी है। मुक्ति की अवधारणा वस्तुतः व्यक्ति और समाज के
483
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org