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________________ वस्तुतः बन्धन विभाव है और मुक्ति का अर्थ है विभाव से स्वभाव में आना। स्वभाव वस्तु का सहभावी धर्म है किन्तु विभाव उत्पन्न होता है, वह कृतक है, अतः उसका निराकरण सम्भव भी है और इष्ट भी है। संसार में सभी घटनाएँ वस्तु के स्वभाव के कारण ही नहीं, उनमें विभाव का भी महत्त्वपूर्ण अवदान होता है। यही कारण है कि भगवान महावीर ने स्वभाव के साथ-साथ विभाग को भी स्थान दिया है। जिस प्रकार व्यावहारिक स्तर पर स्वस्थता शरीर का निज धर्म है फिर भी विकृतियाँ या बीमारियाँ आती ही हैं, उनके कारण भी बाह्य होते हैं। बीमारी के लक्षणों का निराकरण कर स्वस्थ होना, यह शरीर का स्वाभाविक धर्म है । उसी प्रकार आत्मा में बाह्य निमित्तों के कारण वैभाविक परिणति होती है, उसको समाप्त कर स्वभाव में लौटना, यही साधना का सार माना जाता है। प्रस्तुत अध्ययन स्वभाव और विभाव के सम्बन्ध में सही समझ प्रदान करता है और यही उसकी उपादेयता है । प्रस्तुत शोध प्रबंध के सप्तम अध्याय में मैंने बन्धन और मुक्ति की समस्या के संदर्भ में विचार-विमर्श किया। छठे गणधर मण्डिकपुत्र तथा ग्यारहवें गणधर प्रभाव भगवान महावीर के समक्ष यह समस्या लेकर उपस्थित होते हैं कि क्या बन्धन और मुक्ति की अवधारणा यथार्थ है? क्या जीव बन्धन में आता है और क्या उस बन्धन से मुक्त होता है? साथ ही इस अध्याय में बन्धन के हेतु आदि के सम्बन्ध में विचार किया गया है। यह एक वास्तविक तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी में मुक्ति की आकांक्षा रही है, वह बन्धन से स्वतंत्र होना चाहता है, व्यावहारिक स्तर पर भी हमारी जो ज्ञान या अनुभव के संदर्भ में सीमाएँ हैं, उनका हम अतिक्रमण चाहते हैं। प्रत्येक प्राणी अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति का आकांक्षी है, किन्तु यह भी सत्य है कि वह अपने ज्ञान-दर्शन, सुख और शक्ति को कहीं न कहीं सीमित रूप में ही पाता है । हमारी सीमितता ही हमारा बन्धन है बन्धन क्षमता का अभाव नहीं अपितु उसके प्रकरण का बाधक तत्त्व है। क्षमताएँ हमारे भीतर हैं किन्तु वे अभिव्यक्त नहीं, आवरित हैं। कर्म के आवरण के कारण हमारी क्षमताएँ, योग्यता में परिणत नहीं हो पा रही हैं, इस आवरण को समाप्त करना यही साधना का सार है। बीज में वृक्ष बनने की सम्पूर्ण सम्भावनाएँ उपस्थित है किन्तु जब तक वह आवरण (छिलके) को तोड़ता नहीं है तब तक वृक्ष के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाता । बन्धन को स्वीकार करने का अर्थ है चेतना के उपर रहे Jain Education International 482 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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