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ज्ञाता मनस् के अस्तित्व को भी नकारता है। सामान्य तथा शून्यवाद की प्रतिस्थापना यह है कि चित्त और बाह्यार्थ दोनों ही सापेक्षिक और सोपाधिक हैं, उनकी निरपेक्ष सत्ता नहीं है। दूसरे शब्दों में वह दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व का निषेधक है। चाहे हम दृश्य जगत की वस्तुओं को हमारी अनुभूति के स्तर पर सापेक्ष और निःस्वभाव मान ही लें किन्तु सत्ता के स्तर पर यह सिद्धान्त समीचिन प्रतीत नहीं होता, यही कारण है कि जैन दर्शन में ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकारते हुए भी ज्ञाता और ज्ञेय की स्वतंत्र सत्ता को भी स्वीकार किया था। जैन दर्शन की यह अवधारणा वस्तुतः व्यावहारिक स्तर पर सत्य सिद्ध होती है। ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता सापेक्ष होता है किन्तु ज्ञाता और ज्ञेय, ज्ञान सापेक्ष नहीं है। उनकी निरपेक्ष सत्ता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकार करते हुए भी ज्ञेय के रूप में दृश्य जगत् और ज्ञाता के रूप में चित्त की (आत्मा) स्वतंत्र सत्ता स्थापित की गई है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में मैंने छठे अध्याय में विशेषावश्यकभाष्य के आधार पर स्वभाववाद की समीक्षा की। प्राचीनकाल में कुछ लोगों की यह मान्यता थी कि परलोक, इहलोक के सादृश्य होता है, भवान्तर में मनुष्य नरकर मनुष्य ही होता है। इस सिद्धान्त का समर्थन स्वभाववाद के आधार पर इस प्रकार किया जाता था कि आम की गुठली से आम ही उत्पन्न होता है। पंचम गणधर सुधर्मा इसी सिद्धान्त के समर्थक थे। वे भगवान महवीर के समक्ष इसी समस्या को लेकर उपस्थित हुए थे। इसके समाधान के रूप में विशेषावश्यकभाष्य में जो तर्क उपस्थित किये, उनमें से प्रमुख तर्क यह था कि यदि हम इहलोक-परलोक में सादृश्य स्वीकार करेंगे तो कर्म-सिद्धान्त की कोई सार्थकता नहीं रहेगी। व्यावहारिक स्तर पर यह मानने में कोई बाधा नहीं है कि जगत् में जो परिणमन या परिवर्तन होता है उसमें वस्तु स्वभाव का महत्त्वपूर्ण अवदान होता है। किसी भी वस्तु तत्त्व के स्वस्वभाव की उपेक्षा संभव नहीं, किन्तु यदि हम जगत् के सम्पूर्ण घटनाक्रम के पीछे स्वभाव को ही आधार मानेंगे तो फिर वस्तुओं में होने वाले अथवा व्यक्तियों में होने वाले विकार को नहीं समझाया जा सकेगा। स्वभाव वस्तु का निज गुण है किन्तु पर के निमित्त से उसमें विभाव भी होता है, यदि वस्तु में वैभाविक परिवर्तन स्वीकार नहीं किये जायेंगे तो बन्धन-मुक्ति, पुण्य-पाप आदि की अवधारणाएँ निरर्थक हो जायेंगी।
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