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वैश्विक परिप्रेक्ष्य में दृश्य जगत् को अस्वीकार करने का अर्थ होगा सम्पूर्ण जागतिक व्यवस्था का अपलाप करना । दृश्य जगत् का अपलाप करने पर समस्त भौतिक विज्ञानों का भी अपलाप हो जायेगा और उनके अपलाप से मानवीय ज्ञान की एक विपुल सम्पदा से हम वंचित हो जायेंगे। यह जगत् केवल चेतना का विकार है, स्वप्नवत् है, माया है। यदि ऐसा मानेंगे तो फिर संसार का सारा व्यवहार कैसे चलेगा? बाह्यार्थों के अस्तित्व को नकारने का मतलब विश्व की सत्ता को नकारना है। समस्त वैज्ञानिक और भौतिक परिदृश्य को नकारना है। आज विश्व की जो समस्त गतिविधियाँ हैं, क्या केवल उनको एक स्वप्न कहकर उनसे विमुख हुआ जा सकता है? उनकी तथ्यात्मक वास्तविक सत्ता को नकारने का अर्थ है, आनुभविक सत्य से विमुख होना, जो हमारे आनुभविक सत्य है, उनको हम कैसे नकार सकते | विज्ञानवादी या प्रत्ययवादी अवधारणाएँ कहीं न कहीं यथार्थ से विमुख करती हैं। दृश्य जगत् की सत्यता को नकारना न तो व्यवहारिक दृष्टि से उचित है और न ही वैज्ञानिक आधार पर सम्भव है । यह सत्य है कि विज्ञान भी विश्व के समस्त तत्त्वों को ऊर्जा के रूपान्तरण है, यह मानना, चाहे वैज्ञानिक दृष्टि से सत्य भी हो किन्तु ऊर्जा की सत्यता मानने का एक अर्थ यह भी है कि उसके विकारों को उसकी विभिन्न अवस्थाओं का सत्य स्वीकार करना । हम ऊर्जा को सत्य माने किन्तु ऊर्जा के जो विभिन्न रुपान्तरण हैं, उन्हें भी सत्य मानना होगा। यह तो माना जा सकता है, बाह्यार्थ जगत् ऊर्जा के रुपान्तरण का ही नाम है किन्तु यह रुपान्तरण उतना ही सत्य है जितनी सत्य स्वयं ऊर्जा है। भारतीय प्रत्ययवादी विज्ञानवादी चिन्तन में जो यह कहा जाता है कि "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" उस अवधारणा में ब्रह्म की सत्यता को स्वीकारते हैं किन्तु बाह्यार्थ को मिथ्या कहकर उनका अपलाप कर देते हैं जबकि हमें मानना यह चाहिए कि जितना सत्य ब्रह्म है उतना ही सत्य ब्रह्म का रुपान्तरण है। यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने आत्मा की सत्यता को स्वीकार करते हुए ब्राह्मार्थों की सत्ता को स्वीकार किया है। यही बात व्यावहारिक दृष्टि से उचित है।
इसी अध्याय में दृश्य जगत् या बाह्यार्थ की स्थापना करने के साथ-साथ बौद्ध दर्शन में परवर्तीकाल में विकसित विज्ञानवाद और शून्यवाद की समीक्षा भी की गई है। वस्तुतः जहाँ विज्ञानवाद बाह्यार्थ और दृश्य जगत् के अस्तित्व का निषेध करता है औरउसे स्वप्नवत् मानता है किन्तु इसके साथ ही एक चित्त धारा के रूप में ज्ञाता मनस् की सत्ता को स्वीकार करता है जिसे वह विज्ञान कहता है, किन्तु शून्यवाद बाह्यार्थ के साथ-साथ
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