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________________ व्यवहार के स्तर पर शरीर और आत्मा के सहसम्बन्ध अर्थात् अभेद और सैद्धान्तिक दृष्टि से इन दोनों की भिन्नता या भेद को मानना आवश्यक है। यही कारण है कि विशेषावश्यकभाष्य में इनके भेदाभेद पर बल दिया गया है। वह यह मानता है कि व्यावहारिक स्तर पर दोनों में अभेद है और पारमार्थिक दृष्टि से दोनों में भेद है। सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि एक ओर भगवान महावीर ने तज्जीवतच्छरीवाद का खण्डन किया तो दूसरी ओर कर्म-सिद्धान्त के माध्यम से दैहिक-वाचिक-मानसिक योगों को आस्रव और बन्ध का हेतु भी माना। इस प्रकार शरीर और आत्मा के मध्य में भेद और अभेद का सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया गया। व्यावहारिक स्तर पर दोनों के मध्य सम्बन्ध माने बिना हमारा कार्य नहीं चल सकता, क्योंकि समस्त नैतिक उत्तरदायित्व कर्म फल व्यवस्था इसी सहसम्बन्ध के आधार पर स्थित है, किन्तु दूसरी ओर देहासक्ति को तोड़ने के लिए, राग-द्वेष के प्रहाण के लिए इनमें विभेद मानने की आवश्यकता है, जो विशेषावश्यकभाष्यकार ने प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में अगली समस्या भूतार्थ या बाह्यार्थ के अस्तित्व को लेकर के है। हम देखते हैं कि दर्शन के क्षेत्र में प्राचीनकाल से आज तक दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित रही। एक विचारधारा वह है जो चेतना, मनस को प्रमुखता देती हैं और यह मानती हैं कि समस्त दृश्य जगत् केवल चेतन सत्ता या मन का विकार है, फिर चाहे वह औपनिषदिक, वैदान्त दर्शन हो या बौद्धों का विज्ञानवाद अथवा आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का प्रत्ययवाद हो। किन्तु दूसरी ओर प्राचीनकाल से ही ऐसे दर्शनों का भी अस्तित्व रहा है जो चेतन सत्ता के साथ-साथ दृश्य जगत् की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते रहे। दूसरे शब्दों में वे बाह्य जगत् को एक वास्तविक सत् के रूप में देखते हैं। न्याय वैशेषिक दर्शन, जैनदर्शन और किसी सीमा तक बौद्ध परम्परा के वैभाषिक और सौत्रान्तिक सम्प्रदाय बाह्यार्थों की सत्ता को स्वीकार करके चलते रहे। प्रस्तुत गवेषणा में हम यह देखते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य ने चतुर्थ गणधर व्यक्त के माध्यम से इस समस्या को उठाया। व्यक्त यह शंका लेकर उपस्थित होते हैं कि बाह्यार्थ की भूतों का अस्तित्व नहीं, इसके समाधान के रूप में भगवान महावीर स्थापित करते हैं कि बाह्यार्थ की सत्ता है। चाहे तार्किक आधार पर भूतों का या अदृश्य जगत् का कितना ही अपलाप करने का प्रयत्न किया जाये, व्यवहार जगत् में उसे स्वीकार किये बिना काम नहीं चलता है। 479 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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