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जाता है? देहातीत होने की बात क्यों की जाती है? भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्म का विवेक क्यों सिखाया जाता है। वस्तुतः ये सभी बातें मूलतः इसलिए सिखाई जाती हैं कि हमारी देहासक्ति टूटें, क्योंकि सभी शुभाशुभ प्रवृत्तियों के मूल में कहीं न कहीं देहासक्ति रही हुई है। धर्मों में जो तप-साधना की बात कही जाती है, वह भी देहासक्ति की विघटन के लिए ही है। क्योंकि जब तक देहासक्ति बनी रहेगी, तब तक दैहिक प्रवृत्तियों के माध्यम से बन्धन की प्रक्रिया चलती रहेगी। जब तक बन्धन प्रक्रिया चलती रहेगी तब तक मुक्ति सम्भव नहीं होगी। इसलिए एक ओर देहासक्ति को समाप्त करने के लिए जहाँ आत्मा और शरीर के भेद को समझना आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर बन्धन-मुक्ति और कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या के लिए एक क्रिया-प्रतिक्रिया की अवधारणा को मानना भी आवश्यक है।
जैन दर्शन का कथन है कि जब तक संसार में साधकदशा में हैं तब तक हमें यह मानना होगा कि दैहिक प्रवृत्तियों का प्रभाव चेतना पर, चेतना का प्रभाव हमारी दैहिक प्रवृत्तियों पर पड़ता है। आधुनिक युग में 'रेने देकार्त' नाम के पाश्चात्य दार्शनिक ने आत्मा और शरीर के मध्य “अन्तक्रियावाद” स्वीकार किया। चाहे कालान्तर में इस सिद्धान्त का खण्डन करके 'स्पिनोजा' ने देह और आत्मा के 'समानान्तरवाद' का सिद्धान्त और 'लाइबनित्ज' ने 'पूर्वस्थापित सामन्जस्य' का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, फिर भी आधुनिक मनोविज्ञान देह और चेतना के मध्य 'अन्तः क्रियावाद' के सिद्धान्त का समर्थन करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि दैहिक परिवर्तनों का प्रभाव हमारी चेतना पर और चैतसिक भावों का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। व्यक्ति की चेतना जब क्रोध, काम आदि के आवेगों से युक्त होती है तब उसके शरीर के रसायन आदि में स्पष्ट रूप से परिवर्तन देखा जाता है। इसी प्रकार रोगावस्था में जब शारीरिक रक्त-रसायनों में परिवर्तित होता है तब भी व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन आता है। निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि व्यवहार जगत् में आत्मा और शरीर के बीच सह-सम्बन्ध है किन्तु आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से हमें इस आदर्श को स्वीकार करना होगा कि देहासक्ति को तोड़ने के लिए इनके पारस्परिक भेद को माने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो
सकता।
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