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सद्प्रवृत्तियों में प्रेरित करने और असद्प्रवृत्तियों से विमुख करने का इस सिद्धान्त का जो महत्त्वपूर्ण अवदान है, इसे भूलाया नहीं जा सकता ।
आज भी विश्व के अधिकांश व्यक्ति जो दुष्प्रवृत्तियों से दूर रहते हैं और सद्प्रवृत्तियाँ करते हैं वे कहीं न कहीं कर्मफल व्यवस्था के परिणामस्वरूप ही ऐसा करते हैं। पुलिस का भय व्यक्ति को दुष्प्रवृत्तियों से दूर करने में जितना सार्थक नहीं होता उतना सार्थक कर्म - सिद्धान्त होता है, अतः कर्म-सिद्धान्त की प्रासंगिकता को आज भी नकार पाने में समर्थ नहीं हुए। एक उपयोगितावादी दर्शन के रूप में आज भी इसका महत्त्व बना हुआ I
आत्मा के अस्तित्व और कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति के साथ जो जुड़ा हुआ प्रश्न है, वह आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का प्रश्न है। विशेषावश्यकभाष्य में इस समस्या को गणधर वायुभूति के मुख से प्रस्तुत कराया गया और महावीर के द्वारा उसके समाधान को निर्देशित किया गया। सामान्यतया भारतीय दर्शनों, धर्मों में यह सिखाया जाता है कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है । आत्मा और शरीर को एकान्त रूप से भिन्न मानने पर न तो कर्म - सिद्धान्त की व्याख्या सम्भव है और न धार्मिक साधना सम्भव है। कर्म और साधना शरीर के माध्यम से होती है । प्रायः सभी धर्म-दर्शनों में शरीर को साधना का माध्यम "शरीर माध्यम खलुधर्यसाधनम् " माना गया है। जैन परम्परा में भी शरीर को नाव और आत्मा को नाविक कहा गया है, अतः इन दोनों के बीच यदि कोई सम्बन्ध नहीं हो तो साधना कैसे संभव होगी? इसी प्रकार व्यक्ति की जो भी शुभाशुभ प्रवृत्तियाँ हैं, वे शरीर के माध्यम से की जाती हैं। यदि हम शरीर और आत्मा को एकान्त रूप से भिन्न मान लेंगे, किसी भी प्रकार सम्बन्ध स्वीकार नहीं करेंगे तो फिर आत्मा को शरीर के द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्म का उत्तरदायी नहीं माना जा सकेगा और इस प्रकार आत्मा और शरीर के बीच के सम्बन्ध की अस्वीकृति कर्म - सिद्धान्त की जड़ को खोखली कर देगी। जैन दर्शन भी यह मानता है कि आत्मा, शरीर के माध्यम से अपनी योग-प्रवृत्ति अर्थात् दैहिक वाचिक और मानसिक कर्म करता है । अतः बन्धन और मुक्ति का सारा आधार भी आत्मा और शरीर के बीच एक सह-सम्बन्ध है ।
किन्तु इसके विरोध में यह तर्क खड़ा किया जाता है कि यदि हम आत्मा और शरीर के मध्य सहसम्बन्ध स्वीकार करते हैं तो फिर शरीर से मुक्ति का प्रयत्न क्यों किया
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