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को स्वीकृति का न केवल दार्शनिक और धार्मिक दृष्टि से महत्त्व है अपितु नैतिकता और सामाजिक शान्ति की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
प्रस्तुत गवेषणा में मैंने आत्म-अस्तित्व की अवधारणा के बाद कर्म-सिद्धान्त की अवधारणा की चर्चा की है। विशेषावश्यकभाष्य में कर्म-सिद्धान्त की स्थापना के लिए द्वितीय गणधर अग्निभूति के माध्यम से प्रतिपक्ष के रूप में प्रश्न उठाये हैं, जिनका समाधान श्रमण महावीर के मुख से कराया गया, वस्तुतः चाहे एक बार हम आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार लें किन्तु यदि कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते हैं, तो भी शुभाशुभ कर्मों या पुण्य-पाप के प्रतिफलों के प्रति आस्था का विकास करना सम्भव नहीं है। कर्म सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है जो मनुष्य में यह विश्वास जगाता है कि शुभ कर्मों का परिणाम शुभ और अशुभ कर्मों का परिणाम अशुभ होता है। मनुष्य को अशुभ से निवृत्त करने में तथा शुभ में प्रवृत्त करने में महत्त्वपूर्ण प्रेरणा प्रदान करता है। एक अन्य दृष्टि से कहें तो कर्म-सिद्धान्त व्यक्ति की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाता है और उसे सद्प्रवृत्तियों पर प्रेरित करता है। मात्र यही नहीं कर्म-सिद्धान्त पुनर्जन्म की अवधारणा का संपोषक है, चाहे इसाई या इस्लाम धर्मों में पुनर्जन्म की अवधारणा को सीधे रूप में स्वीकार न किया हो किन्तु कर्म-सिद्धान्त के आधार पर इतना अवश्य स्वीकार किया कि व्यक्ति को इस जीवन के शुभाशुभ का परिणाम ईश्वरीय न्याय के पश्चात् जन्नत (स्वर्ग) और दोजख (नरक) में मिलता है, वस्तुतः कर्म-सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसको सभी धर्म-दर्शनों ने स्वीकार किया है, क्योंकि व्यावहारिक दृष्टि से धर्म का उद्देश्य जन-सामान्य को सद्प्रवृत्त की ओर प्रेरित करना है और दुष्प्रवृत्तियों से बचाना है। वस्तुतः यदि हम कर्म-सिद्धान्त की अवधारणा को स्वीकार न करें तो मनुष्यों को दुष्प्रवृत्तियों से विमुख करना कठिन होगा। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि कर्मसिद्धान्त स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय उपस्थित करता है जो स्वस्थ नैतिकता का विरोधी है। उसमें नैतिक आचरण अन्तस्प्रेरणा पर आधारित न होकर भय और प्रलोभन के बाह्य तथ्यों पर आधारित होता है, ऐसा नैतिक कार्य वस्तुतः नैतिक नहीं माना जा सकता है। नैतिकता के लिए कॉण्ट ने “कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य का सिद्धान्त” गीता ने “अनासक्त कर्म” का सिद्धान्त दिया, वह भी खण्डित होता है किन्तु हम देखते हैं कि चाहे गीता का दर्शन हो या कॉण्ट का सिद्धान्त हो, वे भी कहीं न कहीं कर्मफल की व्यवस्था से इन्कार नहीं करते हैं। दूसरे चाहे ये दृष्टिकोण किसी सीमा तक सत्य भी हो किन्तु जन-सामान्य को
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