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को ही नकार दिया जाय तो, पुण्य-पाप, बन्धन-मोक्ष कर्म और उसका प्रतिफल और प्रतिफल के रूप में पुनर्जन्म की अवधारणाएँ स्वतः ही समाप्त हो जायेगी। अतः आत्मा का अस्तित्व एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जिसके सहारे समस्त दार्शनिक और धार्मिक चिन्तन अवस्थित है। यही कारण है कि विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में और इस शोध प्रबन्ध में मैंने सर्वप्रथम इसी समस्या से सम्बन्धित विवेचन को प्रस्तुत किया है।
हम देखते हैं कि आत्मा के अस्तित्व को नकारने से धार्मिक आस्था की नींव डगमगा जाती है। धार्मिक आस्था के डगमगाने से नैतिक आस्था भी समाप्त हो जाती है और जब नैतिक आस्था समाप्त हो जाती है तब उसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की जीवनदृष्टि इहलोकवादी एवं भौतिकवादी बन जाती है। वह अपने स्वार्थों की सिद्धि को ही महत्त्व देता है। जब स्वार्थों की सिद्धि ही जीवन का केन्द्रीय तत्त्व बन जाती है तब उसके परिणामस्वरूप समाज में शोषण की प्रवृत्ति विकसित होती है, तथा साथ ही हिंसा, अत्याचार, परपीड़न, आदि पापप्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं और पारस्परिक संघर्ष या वर्ग संघर्ष जन्म लेता है। वर्तमान में जो भौतिकवादी जीवनदृष्टि का प्राबल्य, हिंसा और शोषण का नग्न ताण्डव देखा जाता है उसक मूल में आत्मा के प्रति अनास्था का भाव ही है।।
आत्मा के अनस्तित्व का दूसरा परिणाम यह भी होता है कि आत्मीयभाव भी समाप्त हो जाता है, और आत्मीय भाव के समाप्त हो जाने से लोकहित तथा अनुकम्पा की प्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि स्वार्थी व्यक्तियों को आत्महन्ता माना जाता है। आत्मा की समतुल्यता नहीं मानने के कारण छोटे-बड़े का भेदभाव भी उत्पन्न होता है और अहंकार की वृत्ति विकसित होती है।
जहाँ आत्मतुल्यता की भावना समाप्त होती है, वहीं विजिगुप्सा और घृणा का जन्म होता है, और इस प्रकार व्यावहारिक जीवन में एक ऐसा दुश्चक्र प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण व्यक्ति और समाज की सुख और शान्ति छिन जाती है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि आत्म-अस्तित्व की अवधारणा से “मैं” और “मेरेपन” के भाव का जन्म होता है जो स्वार्थवृत्ति को जन्म देता है किन्तु आत्मा के अस्तित्व को मानने का अर्थ यह नहीं कि मैं अपनी ही सत्ता को स्वीकार करूं, बल्कि मैं अपने ही समान दूसरे प्राणियों की सत्ता को स्वीकार करूं। और आत्मतुल्यता की इस अवधारणा के आधार पर ही समाज में समता, स्वतंत्रता और न्याय-नैतिकता की स्थापना हो सकती है, अतः आत्मा के अस्तित्व
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