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एक ओर इनके दार्शनिक और तार्किक पक्ष को छुआ है वहीं दूसरी ओर इन सिद्धान्तों की आवश्यकता और प्रासंगिकता पर भी विचार किया है।
प्रस्तुत शोध में दार्शनिक दृष्टि से मूल ग्रन्थ में जो समस्याएँ प्रस्तुत की गई, और उनके जो समाधान सुझाए गए, उनकी चर्चा तो यथास्थान की ही गई है, साथ ही प्रासंगिकता पर भी विचार किया गया है।
दार्शनिक दृष्टि से विशेषावश्यकभाष्य में गणधर गौतम के माध्यम से जो आत्मा के अस्तित्व की समस्या प्रस्तुत की गई, तथा महावीर के मुख से जो समाधान प्रस्तुत करवाये गये, वे तार्किक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं, क्योंकि परवर्ती काल में भी आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए भारतीय चिन्तकों में "शंकराचार्य ने (आठवी सदी) और पाश्चात्य चिन्तकों में “रेने देकार्त" (सोलहवीं सदी) ने भी उन्हीं तर्कों का आश्रय लेकर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया। यह तो सत्य है कि आत्मा के स्वरूप में दार्शनिकों में चाहे मतभेद हो, किन्तु आत्मा के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। समस्त धर्म और दर्शन की नींव आत्मा की अवधारणा पर टिकी हुई है, यही नहीं कर्म-सिद्धान्त, पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, बन्धन-मुक्ति आदि की अवधारणाओं का मूल आधार आत्मा के अस्तित्व की स्वीकृति है।
विशेषावश्यकभाष्य में सम्यश्रद्धा के निम्न 6 विषयों को प्रस्तुत किया है -
आत्मा है आत्मा नित्य है आत्मा कर्ता है आत्मा कर्म-फल का भोक्ता है बन्धन से मुक्ति सम्भव है (मोक्ष)। बन्धन से मुक्ति का उपाय है (मोक्ष मार्ग)।
उपरोक्त छह तथ्यों पर अस्तित्ववादी दृष्टिकोण टिका है, यही समस्त धर्म और साधना पद्धतियों का आधारभूत है। यदि यह आधार समाप्त कर दिया जाये तो कोई भी धर्म एवं साधनामार्ग खड़ा नहीं रह सकेगा। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि विशेषावश्यकभाष्य में जो दार्शनिक समस्याएँ प्रस्तुत की गई हैं व जिनका समाधान किया गया हैं वे धार्मिक आस्था के लिए नींव के पत्थर के समान हैं। यदि आत्मा के अस्तित्व
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