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प्रयोग है जिसके अन्तर्गत परिगणित प्रत्येक ग्रन्थ में प्रायः एक विशिष्ट विषयवस्तु सुराहत है, जो आगमसूत्रों के अनुसार प्रतिपादित है।'
समवायांग सूत्र में ऋषभदेव के 84 हजार शिष्यों द्वारा 84 हजार प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना करने का उल्लेख है जबकि भगवान महावीर के 14 हजार शिष्यों द्वारा 14 हजार प्रकीर्णक होने चाहिये, जबकि वर्तमान में केवल 22 प्रकीर्णक उपलब्ध हैं। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में भी कतिपय प्रकीर्णकों के नाम उपलब्ध हैं, व्यवहारसूत्र में 19 प्रकीर्णकों की सूची है।
नन्दीसूत्र में आगमों के कालिक और उत्कालिक इन दो विभागों में प्रकीर्णकों का उल्लेख है। वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या दस जानी जाती है। 1. चतुःशरण - अरिहन्त, सिद्ध, साधु एवं केवलीप्ररूपित धर्म ऐसे चार शरण माने
गये हैं इसलिए इसे चतुशरण कहा है। 2. आतुरप्रत्याख्यान - बालमरण और पण्डितमरण के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन
किया गया है। प्रत्याख्यान को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना है। इन दोनों प्रकीर्णकों के रचयिता वीरभद्र (दसवीं शती) हैं। एक प्राचीन आचार्यकृत आतुरप्रत्याख्यान भी है। महाप्रत्याख्यान - इस प्रकीर्णक में समाधिमरण का प्रतिपादन है। दुश्चरित्र की निन्दा, सच्चरित्रात्मक व्रतों, भावनाओं एवं आराधनाओं पर बल दिया गया है। भक्तपरिज्ञा - भक्तपरिज्ञा में इंगिनी और पादोपगमन रूप मरण भेदों का स्वरूप प्रतिपादित है तथा मन को वश में करने के लिए अनेक सार्थक दृष्टान्तों का प्रयोग है। तन्दुलवैचारिक - इसमें जीव की गर्भावस्था, आहारविधि, बालजीवन, क्रीड़ा, आदि अवस्थाओं का वर्णन है। सौ वर्ष की आयु वाला व्यक्ति कितने तन्दुल (चावल) खाता है, इस संख्या पर विशेष रूप से चिन्तन करने के कारण से इसका नाम तन्दुलवैचारिक रखा है।
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' जिनवाणी (जैनागम विशेषांक), वही, पृ. 460 १ प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, वही, पृ. 197
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