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अतिक्रम-व्यतिक्रम एवं अतिचार की शुद्धि, आलोचना एवं निन्दा के अल्प प्रायश्चित से हो जाती है। अनाचार के सेवन का प्रायश्चित निशीथसूत्र में विशेष रूप से प्रतिपादित है ।
आवश्यकसूत्र
'आवश्यक' जैन साधना का मूल प्राण है। यह जीवन-शुद्धि और दोष परिमार्जन का सूत्र है । आवश्यक अपनी आत्मा के परीक्षण करने का एक उत्तम उपाय है। आत्मा जिस साधना और आराधना शाश्वत सुखों का अनुभव करें, कर्ममल को नष्ट कर सम्यक्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप अध्यात्म के आलोक को प्राप्त करें, वह आवश्यक है। जो साधन आवश्यक रूप से करने योग्य है, वह आवश्यक है।
आचार्य
मलयागिरी कहते हैं
आसमान्ताद्
“ज्ञानादिगुणानाम् वश्याइन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात् तद् आवश्यकम्"" गुणों से शून्य आत्मा को जो गुणों से पूर्ण रूप से वासित करे अर्थात् गुणों से युक्त करे वह 'आवश्यक' है। जो गुणों की आधारभूमि हो, वह 'आवश्यक' है। आवश्यक सूत्र के 6 प्रकार बताये गये हैं 1. सामायिक, 2. चतुर्विशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5. कायोत्सर्ग एवं 6 प्रत्याख्यान ।
सामायिक में समभाव की साधना की जाती है । चतुर्विशतिस्तव में चौबिस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है। स्तुति से साधक को आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है तथा मिथ्या अहंकार नष्ट हो जाता है । वन्दना में गुरूओं को नमस्कार किया जाता है जिससे भक्ति और बहुमान प्रकट होता है। प्रतिक्रमण के द्वारा दोषों की आलोचना होती है, यह अशुभयोग से शुभयोग की ओर लौटने का उपक्रम है। कायोत्सर्ग में शरीर की ममता का त्याग किया जाता है । प्रत्याख्यान में आहार आदि का त्याग किया जाता है, यह संयम की साधना में दीप्ति पैदा करता है ।
इस प्रकार यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है ।
प्रकीर्णक साहित्य
जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। प्रकीर्णक को परिभाषित करते हुए नन्दीसूत्र के चूर्णिकार ने कहा है प्रकीर्णक एक पारिभाषिक शब्द
1 जिनवाणी (जैनागम विशेषांक), वही, पृ. 441
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