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व्यवहारसूत्र
व्यवहार शब्द 'वि' एवं 'अव' उपसर्ग पूर्वह 'हृ' धातु से 'धञ्' प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। 'वि' उपसर्ग विविधता का सूचक है, 'अव' सन्देह का द्योतक है, 'ह' धातु हरने के अर्थ में प्रयुक्त है। इन सभी के योग से व्यवहार शब्द की संरचना हुई है। अन्य मत के अनुसार ऐसा स्पष्ट है कि - जिसमें विविध संशयों का हरण होता है, वह व्यवहार है। इसमें संभवतः 300 सूत्र हैं तथा 10 उद्देशक हैं।'
प्रथम उद्देशक में निष्कपट और सकपट आलोचक, एकल विहारी साधु आदि से सम्बन्धित प्रायश्चितों पर प्रकाश डाला गया है, द्वितीय उद्देशक में साधुओं के पारस्परिक व्यवहार आदि विषयों पर विवेचन है, तृतीय उद्देशक में आचार्य में होने वाली योग्यता का निर्देश है। इस तरह साधुओं व साध्वियों की आचार संहिता की परम्परा निर्दिष्ट है। निशीथसूत्र
छेद सूत्रों में निशीथसूत्र का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। निशीथ आचारांग की पांचवी चूला है। इसमें 20 उद्देशक हैं। 19 उद्देशकों में प्रायश्चित का विधान तथा बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित देने की प्रक्रिया प्रतिपादित है।
जैन साधना में दो मार्ग हैं - उत्वर्ग और अपवाद। उत्सर्ग मार्ग का अर्थ है - बाल, वृद्ध, श्रान्त और ग्लान श्रमण को भी संयम का, जो शुद्धात्म तत्त्व का साधन होने से मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो, उस प्रकार संयत का ऐसा अपने योग्य अतिकठोर आचरण ही आचरना, उत्सर्ग मार्ग है।
संयम के साधनभूत शरीर का छेद जिस प्रकार न हो, उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना अपवाद है।
इसमें इन दोनों मार्गों के अनुसार प्रायश्चित का विधान किया गया है। प्रायश्चित दोष सेवन एवं वैयक्तिक परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग दिया जाता है। विशेष रूप से हिंसा चोरी, मैथुन-सेवन को पाप मानकर उन्हें त्याज्य रूप बताया है। इनके
। प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, वही, पृ. 192 ' छेदसूत्र, एक परिशीलन, आचार्य देवेन्द्रमुनि, पृ. 79
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