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गणि-सम्पदा, पांचवी में चित्त समाधि के 10 बोल, षष्ठम में श्रावक की एकादश प्रतिमा, सप्तम दशा में भिक्षु की 12 प्रतिमा के उल्लेख हैं। अष्टम दशा में जो निरूपण है उसे वहां से पृथक करण करके कल्पसूत्र के नाम से स्थापित किया है। नवम दशा में महामोहनीय कर्म-बन्ध के कारण और दसवी दशा में 9 निदानों का निषेध है।'
इस प्रकार इसकी विषयवस्तु महत्त्वपूर्ण है और मुनि जीवन की साधना से सम्बद्ध है। योग साधना की दृष्टि से भी चित्त को एकाग्र करने के लिए ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन है तथा उपासक प्रतिमा और भिक्षु प्रतिमा, श्रावक एवं श्रमण की उत्कृष्ट साधना के उच्चतम मापदण्ड के रूप में आशातना और सबलदोष इन दो दशाओं में साधु जीवन के दैनिक नियमों का विवेचन है। गणि सम्पदा में आचार्य पद पर विराजित मुनि के अन्तरंग व बहिरंग व्यक्तित्व की योग्यताओं का निरूपण है।
बृहकल्पसूत्र
इस सूत्र का छेद सूत्रों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सूत्र में श्रमणों के आचार विषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, प्रायश्चित आदि पर गहन चिन्तन है। बृहकल्प सूत्र में 6 उद्देश्यक हैं एवं 81 अधिकार हैं।
साधु-साध्वियों के संयम के साधक एवं बाधक स्थान, वस्त्र, पात्र आदि का विवेचन प्रस्तुत है। प्रथम उद्देश्यक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियों के निवास का विस्तृत वर्णन है, द्वितीय उद्देशक में निवास व विहार करने के नियम प्रतिपादित हैं, तृतीय उद्देशक में साधु और साध्वियों को एक दूसरे के समीप आगमन व पहुंचने की मर्यादा का समुल्लेख है। प्रायश्चित और आचार विधि का निरूपण चतुर्थ उद्देशक में है। पंचम उद्देशक भोजन-पान संदर्भित नियमों का निरूपण है। षष्ठम उद्देशक में दुर्वचन बोलने का प्रतिषेध है तथा साधु साध्वियों को किस प्रकार और किस अवस्था में परस्पर सहयोग देना चाहिए, इसका बोध कराया गया है।'
आचार्यों ने इसमें विस्तृत रूप से समाचारी और कल्पाकल्प का उल्लेख किया है। इस दृष्टि से इस सूत्र का नाम बृहतकल्प है। इस सूत्र के रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु माने गये हैं।
| जिनवाणी, (जैनागम विशेषांक), वही, पृ. 396 • त्रीणि छेदसूत्राणि, आ. देवेन्द्रमुनि, ब्यावर, पृ. 12-13
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