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________________ कर्मों को यदि संचरणशील मानते हैं तो सर्प-कंचुकी सम्बन्ध गलत होता है, क्योंकि कंचुकीवत् कर्मों को मानने पर तो वे शरीर के बाहर ही रहेंगे। दूसरी समस्या यह होगी कि वेदना क्रम से होगी, जबकि दण्डादि के प्रहार होने पर अन्दर और बाहर एक साथ वेदना देखी जाती है, अतः यह सिद्धान्त मिथ्या है। कर्मों का शरीर में संचरण मान लेने पर एक से दूसरे भव में अनुगमन नहीं होगा, क्योंकि जो शरीर की क्रियाएँ हैं - उच्छवास, निश्वाँस वे भवान्तर गमन नहीं करते, वैसे ही कर्म भी नहीं करेंगे।' गोष्ठामाहिल ने आगम का संदर्भ देकर कहा कि - भगवतीसूत्र में बताया है कि - “चलेमाणे चलिए। इसका तात्पर्य यही हुआ कि कर्म संचरणशील हैं। - इस तर्क का समाधान गुरु ने इस प्रकार दिया - इस पाठ का आशय यह नहीं कि कर्म चलते हैं। बल्कि उसका तात्पर्य यह है कि जो कर्मपुद्गल भोग या निर्जरा के द्वारा जीव से अलग हो गया है, वह फिर कर्म नहीं रहता, क्योंकि उसमें सुख-दुःख देने की शक्ति नहीं रहती, उस समय उन्हें अकर्म कहा जायेगा। आगे सूत्र में बताया है - “नेरइये जाव वेमाणिए जीवाउ चलियं कम्मं निज्जरइ। अर्थात् नारकी से लेकर वैमानिक तक के जीवों से कर्म चलित हो जाता है, वह निर्जीर्ण ही है और वह अकर्म हो जाता इस प्रकार कर्मों को संचरणशील मानने से कई दोष उपस्थित होते हैं। कर्मों को शरीर के मध्य स्थित मानने पर कोई समस्या नहीं रहती। कर्मों का बन्धन मिथ्यात्वादि हेतु के कारण होता है। मिथ्यात्वादि जीव के बाह्य और मध्य दोनों प्रदेशों में रहते हैं, तो कर्म भी सब जगह होगा। अतः यह सिद्ध होता है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लौहपिण्डवत् तादात्म्य सम्बन्ध है। जीव और कर्म का तादात्म्य सम्बन्ध मान लेने पर पुनः वही प्रश्न उठता है कि मोक्ष किस प्रकार होगा? जैसे - सोने और मैल को दूर करने के लिए औषधियों के प्रयोग करते हैं, जिससे स्वर्ण निखर जाता है, वैसे ही ज्ञान और क्रिया के द्वारा कर्म भी जीव से अलग किये जा सकते हैं। मिथ्यात्व आदि से जीव के साथ कर्मों का बन्ध होता है, तो ' अह' तं संचरइ मई न बहिं तो कंचुगो व्व निच्चत्थं । जं च जुगवं पि वियणा, सबम्मिवि दीसए देहे।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2528 जं भवंतरमन्नेइ य सरीरसंचाराओ तहनिलो व्व। चलियं निज्जरियं चिय, भणियकम्मं च जं समए।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2529 471 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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