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________________ सर्वव्यापक मानना पड़ेगा। आकाश की तरह कर्म जीव के हर एक प्रदेश में व्याप्त होने से सर्वगत हो जायेंगे। इस प्रकार सर्वप्रदेशों के साथ कर्म का स्पर्श मानने पर सर्प-कंचुकवत् सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकेगा।' यदि कर्म शरीर की त्वचा को ही स्पर्श करता है तो एकभव से दूसरे भव जाते हुए जीव के साथ कर्म नहीं रहेंगे। शरीर के मैल की तरह वे भी शरीर से छूट जायेंगे। कर्म के अभाव में सभी जीवों को मोक्ष प्राप्त हो जायेगा और संसार का नाश हो जायेगा। यदि कर्मों के अभाव में भी संसार को मानें तो व्रत-तपस्यादि के द्वारा की जाने वाली कर्मों की निर्जरा व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि संसार तो कर्मरहित होने पर भी रहेगा, तो सिद्धों को भी संसार में आना पड़ेगा। यदि कर्मों का सम्बन्ध कंचुकी की तरह शरीर से बाहर ही माना जाये तो फिर शरीर के भीतर जो शूलादिजन्य वेदना होती है, वह वेदना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वेदना का कारण वहाँ नहीं है। बिना किसी कारण भी अतवेदना होने लगे तो सिद्धों को भी होनी चाहिए। यदि यह भानें कि बाह्य त्वचा को स्पर्श करने के बाद अन्तर्वेदना होती है, जैसे - लकड़ी का आघात पहले बाहर लगता है फिर भीतर वेदना होती है। पर यह कथन अयुक्त है क्योंकि बाह्य त्वचा और आन्तरिक भाग दोनों भिन्न-भिन्न हैं। लकड़ी आदि आघात के बिना भी अन्तर्वेदना होती है। बाहर चोट नहीं लगने पर भी अन्दर पीड़ा देखी जाती है, उस अन्तर्वेदना का कारण कर्म है। कर्म यदि अपनी जगह के अतिरिक्त दूसरे देश में भी सुख-दुःखादि उत्पन्न करने लगे तो देवदत्त के कर्मों से यज्ञदत्त को पीड़ा पहुंचने लगेगी। कर्म संचरणशील है, वे शरीर के भीतर और बाहर संचरण करते रहते हैं, जैसे - देवदत्त के कर्म उसी के शरीर के भीतर-बाहर संचरण करते हैं न कि अन्य व्यक्ति के शरीरगत कर्म अन्य के शरीर में संचरण करते हैं। ' किं कंचुओ ब्व कम्मं पइप्पएसमह जीवपज्जंते। पइदेस सव्वगयं, तदंतरालाणवत्थाओ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2522 एवं सव्वविमुक्खो निक्कारणउ व्व सव्वसंसारो। भवमुक्काणं च पुणो संसरणमओ अणासासो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2524 'देहन्तो जा वियणा कम्माभावम्मि किं निमित्ता सा। निक्कारणा वा जइ तो सिद्धोऽवि, न वेयणारहिओ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2525 470 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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