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सम्यक्त्वादि से कर्म दूर होते हैं। आत्मा से कर्मों का नाश होना स्वाभाविक है।' गोष्ठामाहिल ने प्रत्याख्यान विषयक शंका रखी थी, जिसका आचार्य दुर्बलिकापुष्य मित्र ने कई युक्तियों से समाधान किया। किन्तु गोष्ठामाहिल अपने मत के प्रति आग्रह करता रहा और यह हठ किया कि - जैसा मैं कहता हूं, तीर्थंकरों ने वैसा ही उपदेश दिया है। विवाद बढ़ जाने पर स्थविरों ने भद्रिका देवी को आह्वान किया, और उसे कहा - महाविदेह क्षेत्र में जाकर तीर्थंकर से पूछो कि क्या दुर्बलिकापुष्य मित्र तथा संघ की बात सच्ची है या गोष्ठामाहिल की?
देवी महाविदेह क्षेत्र में गयी और भगवान से पूछ कर बताया कि - गोष्ठामाहिल की बात सही नहीं है और यह सातवाँ निह्नव है। यह सुनकर गोष्ठामाहिल ने देवी की असमर्थता बताते हुए कहा कि - यह देवी कम ऋद्धि वाली है, महाविदेह क्षेत्र में जाने की ताकत इसमें नहीं है। इस प्रकार उसने अपना हठ नहीं छोड़ा।
इन सातों निह्नवों की प्ररुपणा सिद्धान्त विरुद्ध थी, जैन आचार्यों ने विशेषावश्यकभाष्य में इन निह्नवों की अवधारणा की गहन तार्किक समीक्षा जनमानस को एक सम्यक् दार्शनिक दृष्टि प्रस्तुत की।
अविभागत्थरस वि से, विमोयणं कंचणोवलाणं व। नाण-किरियाहिं कीरई, मिच्छताइहिं च आयाणं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2531
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