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तत्पश्चात् वे घर पर आये। वहाँ माता से प्रेरित होकर जैन आचार्य तोसलिपुत्र से भागवती दीक्षा ग्रहण कर दृष्टिवाद का अध्ययन प्रारम्भ किया और तदन्तर आर्य वज्र के पास 9 पूर्वो का अध्ययन सम्पन्न कर 10वें पूर्व के 24 यविक ग्रहण किये। . ऐसे महान आचार्य के तीन प्रमुख शिष्य हुए - 1. दुर्बलिकापुष्यमित्र, 2. फल्गुरक्षित एवं 3. गोष्ठामाहिल। उन्होंने अन्तिम समय में दुर्बलिकापुष्यमित्र को योग्य जानकर गण का भार सौंपा। गोष्ठामाहिल की अनुपस्थिति में यह कार्य हुआ। जब उसे ज्ञात हुआ कि आचार्य पद दुर्बलिकापुष्यमित्र को मिला तो वह अलग स्थान पर रूका और प्रवचन में भी नहीं आया, क्योंकि वह आचार्य पद पाने का इच्छुक था। दुर्बलिकापुष्यमित्र जो प्रवचन करते थे वह प्रवचन गोष्ठामाहिल मुनि विन्ध्य के द्वारा सुनता था।
____ एक बार आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र आठवें कर्मप्रवाद पूर्व का अर्थ विवेचन कर रहे थे। उसमें एक प्रश्न यह था कि जीव के साथ कर्मों का बंध किस प्रकार होता है? उसके समाधान में उन्होंने कहा कि कर्म का बंध तीन प्रकार से होता है -
स्पृष्ट - कुछ कर्म जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श मात्र करते हैं और कालान्तर में स्थिति का परिपाक होने पर (पूर्ण होने पर) उनसे अलग हो जाते हैं। जैसे - सूखी दीवाल पर फेंकी गई रेत दीवाल का स्पर्श मात्र कर नीचे गिर जाती है, वैसे ही कर्म कषायरहित आत्मा से बंधते हैं और दूसरे समय में उदय में आकर अल्पकाल में जीव-प्रदेश से छूट जाते हैं। स्पृष्टबद्ध - कुछ कर्म जीव-प्रदेशों का स्पर्श कर बद्ध होते हैं और वे भी कालान्तर में अलग हो जाते हैं। जैसे गीली दीवाल पर फेंकी गई रेत, कुछ चिपक जाती है और कुछ नीचे गिर जाती है, वैसे ही कर्मपुद्गल जीव प्रदेशों के साथ स्पृष्ट (संयोग) होते हैं, और बद्ध अर्थात् एकमेक हो जाते हैं किन्तु एक काल
बाद छूट जाते हैं। 3. बद्ध-स्पृष्ट निकाचित - कुछ कर्म गाढ़ अध्यवसाय वाले होने से जीव प्रदेशों के
• साथ गाढ़ रूप में बंध को प्राप्त करते हैं। इसमें अपवर्तनादिकरण का प्रयोग नहीं . होता है। जैसे गीली दीवाल पर लगाया गया हाथ का चित्र ।'
कम्मप्पवायपुवे बद्धं पु; निकाइयं कम्मं। जीवपएसेहि समं, सूईकलावोवमाणाओ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2513
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