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यदि जीव से भिन्न प्रदेशों को नो जीव रूप में माना भी जाय तो यह मान्यता एक नय की है और वह एकान्तवाद होने से मिथ्या है, जबकि सर्वनयात्मक वचन ही जिनमत
इस त्रैराशिकवाद का खण्डन प्रयोगात्मक रूप से आचार्य श्रीगुप्त ने किया। जब उन्हें लगा कि रोहगुप्त अपने मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करेगा, अतः उससे पहले ही जनता को सही ज्ञान बता दिया जाये। उन्होंने राजसभा में 6 महिने तक शिष्य के साथ वाद-विवाद किया। अन्त में उसका निग्रह इस प्रकार किया। कुत्रिकापण अर्थात् जहाँ तीन लोक में जितनी वस्तुएँ हैं, धातु, जीव या मूल से बने हुए जितने पदार्थ हैं वे सब उपलब्ध रहें, यदि उस दुकान से नोजीव नाम की कोई वस्तु मिल जायेगी तो तीन राशियाँ मान लेंगे। और नहीं मिली तो संसार में उसका अभाव मान लेंगे।
राजा रोहगुप्त और आचार्य श्रीगुप्त आदि सभी कुत्रिकापण में गये। उस रोहगुप्त ने एक वस्तु को चार तरह से मांग की -
_पृथ्वी लाओ, तब देव ने मिट्टी का ढेला लाकर दे दिया, क्योंकि पूरी पृथ्वी लाना तो असम्भव है। ढेले में पृथ्वित्व जाति है, तथा स्त्रीलिंग है इसलिए वक्ता का अभिप्राय समझकर ढेला ला दिया। रोहगुप्त ने कहा - अपृथ्वी लाओ तब देव ने जल लाकर दे दिया।
तत्पश्चात् नो पृथ्वी लाओ, कहने पर देव ने ढेले का टुकड़ा लाकर दे दिया। क्योंकि जब ढेले में पृथ्वित्व का व्यवहार हो सकता है, तो उसके एक देश में नो शब्द का प्रयोग करके उसे नोपृथ्वी मान लिया गया।
___रोहगुप्त ने कहा - नोपृथ्वी लाओ, तब देव ने ढेला और जल दोनों लाकर दे दिये। 'नो' शब्द के दो अर्थ हैं - सर्वनिषेध और देशनिषेध। प्रथम पक्ष में दो निषेधों के मिलने से 'नोअपृथ्वी' का अर्थ का पृथ्वी हो गया, इसलिए ढेला दिया, देश निषेध पक्ष में अपृथ्वी का अर्थ जलादि का एक देश ही नोपृथ्वी कहा जायेगा, अत: देव ने जल ला दिया।
' तं जइ सम्बनयमयं जिणमयमिच्छसि पत्वज्ज दो रासी।
पयविप्पडिवत्तीएऽवि मिच्छतं किं नु रासीसु।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2480 सिरिगुत्तेणं छलुगो छम्मास विकड्ढिऊणवाए जिओ। आहरण कुत्तिआवण, चोयालसएठा पुच्छाणं।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2489
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