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________________ यदि जीव प्रदेशों में संघात और भेद मानें तो सर्व जीवों का परस्पर में सांकर्य हो जायेगा और एक जीव के बाँधे हुए शुभाशुभ कर्मों का फल दूसरे को भोगना पड़ेगा, इस प्रकार कृत नाश और अकृत का अभ्यागम होने से सुख-दुःखादि की व्यवस्था टूट जायेगी। यदि यह कहें कि जैसे धर्मास्तिकाय से अभिन्न प्रदेश भी “नोधर्मास्तिकाय” कहा जाता है, उसी प्रकार जीव प्रदेश जीव से अलग न होने पर भी 'नोजीव' कहा जा सकता है? यह कथन कई प्रश्न उपस्थित करता है। यदि प्रत्येक प्रदेश को 'नोजीव' कहा जाये तो जीव के असंख्यात प्रदेश हैं, वे सब नोजीव हो जायेंगे, जिससे जीव का अस्तित्व ही नहीं रहेगा।' इसी प्रकार अजीव भी नोअजीव हो जाएगा, क्योंकि धर्मास्तिकाय आदि द्वयणुक और घटादि में अजीव के प्रदेश हैं, अजीव का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार दो ही राशियाँ रह जायेंगी। - 1. नोजीव और 2. नोअजीव। तीन राशियाँ सिद्ध नहीं होंगी। __ छिपकली के कटे अवयव में हो रही हलन-चलन की क्रिया को सजीव मानें तो युक्त है, किन्तु यदि उसे नोजीव मानते हैं तो घड़े आदि को अजीव है उसके एक टुकड़े को नोअजीव कहना पड़ेगा। इस तरह चार राशियाँ होंगी। - 1. जीव, 2. अजीव, 3. नोजीव तथा 4. नोअजीव। जबकि छिपकली की कटी हुई पूँछ जीव है क्योंकि उसमें स्फुरणादि जीव के लक्षण पाये जाते हैं। __ अनुयोग द्वार में जो नोजीव का कथन है, वह समभिरूढ़ नय की अपेक्षा से है। समभिरूढ़ नय विशेष्य और विशेषण को अभिन्न मानता है। अतः वह जीव से भिन्न प्रदेश को 'नोजीव' नहीं कहता, बल्कि जीव से अभिन्न प्रदेश को ही 'नोजीव' शब्द से व्यवहार करता है। जैसे नीलकमल, यह कर्मधारय समास के समान है जो देश और देशी को अलग नहीं मानता है। अतः सिद्ध हुआ कि नोजीव राशि जीव राशि से अभिन्न है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यदि नैगमनय की तरह तत्पुरुष समास होता तो भेद हो सकता था। अह अविमुक्कोवि तओ नोजीवो तो पइप्पएसं। जीवम्मि असंखेज्जा नो जीवा नत्थि जीवो ते।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2470 ' एवमजीवावि पइप्पएसभेएण नो अजीवत्ति। नत्थि अजीवा केई कयरे ते तिन्नि रासित्ति।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2471 एवंपि रासिओ ते न तिन्नि चत्तारि संपसज्जंति। जीवा तहा अजीवा नो जीवा नो अजीवा य।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2473 465 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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