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विद्यमान जीव का पूर्णरूप से विनाश और अविद्यमान जीव का सर्वथा उत्पाद नहीं माना जाता है। जैसे कि -
जीवा णं भंते! किं वढ़-ति, हायंति, अवट्ठिया।
गोयमा? णो वढढंति, नो हायेति, अवट्ठिया।। हे भगवन्! जीव बढ़ते हैं, घटते हैं या एक समान स्थिर हैं? भगवान ने कहा - हे गौतम! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, वे हमेशा स्थिर रहते
जीव का सर्वनाश मान लेने से मोक्ष का अभाव, दीक्षा की निष्फलता, संसार की शून्यता और कृतनाश आदि कई दोष प्राप्त हो जायेंगे। अतः जीव का खंडशः नाश मानना युक्त नहीं है। छिपकली की जो पूँछ है वह औदारिक शरीर की है, उस शरीर का नाश होता है, पर जीव का नाश नहीं होता।
यदि यह प्रश्न करें कि जैसे पुद्गल में संघात और भेद होता है, वैसे ही जीव में भी संघात और भेद हो सकता है। जैसे -- एक पुद्गल स्कन्ध में दूसरे स्कन्ध के परमाणु आकर मिलते हैं और उससे अलग होकर दूसरी जगह चले जाते हैं, वैसे ही जीव में भी दूसरे जीव के प्रदेश आकर मिलते रहेंगे और उस जीव के अलग होते रहेंगे। इस प्रकार मानने से जीवों का सर्वनाश नहीं होगा। एक तरफ से खण्डशः नाश होता रहेगा, दूसरी ओर से प्रदेशों का संघात होता रहेगा।
' यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि पुद्गल का तो स्वभाव ही मिलने-बिखरने का है। पुद्गल = पुरण-गलन इन दो शब्दों का मेल है। पुद्गल में संघातक और विघातक - ये दोनों शक्तियाँ हैं। पुद्गल में अगर वियोजक शक्ति नहीं होती तो सब अणुओं का एक पिण्ड बन जाता, और यदि संयोजक शक्ति नहीं होती तो एक-एक अणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं कर पाते। पुद्गल के सिवाय अन्य पदार्थों में किसी दूसरे पदार्थ से जाकर मिलने की शक्ति नहीं है।
| भगवतीसूत्र २ नासे य सव्वनासो, जीवनासे य जिणमयच्चाओ।
तत्तो य अणिमुक्खो, दिक्खावेफल्लदोसा य।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2468
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