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हे भगवन्! कछुआ, कछुए के अवयव, मनुष्य, मनुष्य के अवयव, गोह, गोह के
अवयव, गाय, गाय के अवयव, महिष, महिष के अवयव
इनके दो तीन या असंख्यात
टुकड़े हो जाने पर क्या बीच में जीव प्रदेश रहते हैं ?
हाँ, रहते हैं ।
हे भगवन्! क्या कोई पुरुष उन जीव प्रदेशों को अपने हाथ से छूकर या किसी तरह पीड़ा पहुंचा सकता है?
नहीं, यह बात सम्भव नहीं है । वहाँ शस्त्र की गति नहीं होती।'
इन वाक्यों से जीव और उनके कटे हुए भाग के बीच में जीव प्रदेशों का होना सिद्ध होता है, किन्तु कार्मण शरीर के सूक्ष्म और आत्मप्रदेश अमूर्त होने से वे किसी को दिखाई नहीं देते।
यदि यह शंका करें कि खंडित अवयव में स्फुरणादि से जीव के प्रदेशों का स्पष्ट आभास होता है, वैसे अन्तराल गति में जीव का आभास क्यों नहीं होता? इसका समाधान है कि जैसे दीपक का प्रकाश आकाश (अन्तराल) में नहीं दिखाई देता, वह प्रकाश दीवाल या घटपटादि पदार्थों का संयोग पाकर दिखाई देता है, वैसे ही जीव- प्रदेश भी अन्तराल में नहीं दिखते हैं, वे भाषा, श्वासोच्छ्वास आदि क्रियाओं से ज्ञात होते हैं। 2 सामान्य प्राणी तीन वस्तु नहीं देख पाता 1. सिद्धों को, 2. निगोद के जीवों को तथा 3. कार्मणकाय योग वाले जीव को अन्तरालवर्ती जीव प्रदेशों को कोई भी शस्त्रादि से बाधा नहीं पहुँचा सकता, क्योंकि आत्मा अमूर्त द्रव्य, अकृत और विकार रहित तथा विनाश के कारणों से रहित है और आकाशवत् अखण्ड है, इसके टुकडे नहीं होते हैं, अतः नोजीव नहीं होता ।
यदि शस्त्र छेदन से जीव- प्रदेशों का खण्ड-खण्ड रूप से नाश मान लिया जाये तो फिर अनुक्रम से धीरे-धीरे जीव के सर्वप्रदेशों का नाश हो जायेगा। जो वस्तु खण्डशः नष्ट होती है, उसका घटपटादि की तरह सर्वनाश भी होता है। जबकि जैन दर्शन में
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भगवतीसूत्र
गज्झा मुत्तिगयाओ, नागासे जह पईवरस्सीओ।
तह जीवलक्खणाई, देहे न तदंतरालम्मि ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2465
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देहरहियं न गिण्हड़, निरतिसओ नातिसुहुमदेहं व
न य से होइ विबाहा, जीवस्स भवन्तराल्लेव ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2466
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