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यदि यह मानें कि एक वस्तु में, एक समय में अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि अनेक उपयोग होते हैं, अतः एक समय में कई उपयोग हो भी सकते हैं। किन्तु यह मानना ठीक नहीं है, क्योंकि अवग्रहादि से वस्तु के अनेक पर्यायों को जाना जाता है। उपयोग उत्तरोत्तर अलग-अलग पर्यायों को भिन्न-भिन्न समय में ग्रहण करता है।
यदि एक साथ अनेक अर्थों को ग्रहण कर सकते हैं तो एक साथ शीत-उष्ण पदार्थ ग्रहण क्यों नहीं कर सकते? पर यहाँ एक अनेक अर्थों का ग्रहण सामान्य रूप से होता है। उपयोग दो प्रकार का है - सामान्य और विशेष। जैसे - यह लश्कर (सेना) की छावनी है, यह सामान्य उपयोग है और विशेषग्राही उपयोग अनेक उपयोग वाला कहलाता है। जैसे - यह हाथी है, यह घोड़ा है, यह रथ है इत्यादि। इस प्रकार उपयोग और अर्थाग्रह भिन्न-भिन्न हैं, सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि मुझे वेदना हो रही है किन्तु शीत-उष्ण का वेदन विशेष उपयोग से होता है और वह क्रम से होता है। सामान्य ज्ञान अवग्रह रूप है और विशेषज्ञान अवायरूप है, दोनों अत्यन्त भिन्न हैं। वस्तु का पहले सामान्य ज्ञान होता है, फिर विशेष। इसी प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा भी क्रम से होते हैं।'
जिस प्रकार सामान्य और विशेषज्ञान एक साथ नहीं हो सकते, उसी प्रकार बहुत से विशेषज्ञान भी एक साथ नहीं होते। एक विशेषज्ञान के बाद द्वितीय क्षण में दूसरा विशेषज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि विशेषज्ञान से पहले सामान्य ज्ञान का होना आवश्यक है। जैसे - यह घड़ा है, यह सामान्य ज्ञान अर्थात् अवग्रह हुआ, तत्पश्चात् 'यह धातु का बना हुआ है या मिट्टी का?' इस प्रकार संशय होने पर ईहा हुई, फिर अवाय में 'यह धातु का बना हुआ है। इस प्रकार निश्चय हुआ। यह धातु का है, उत्तर भेद की अपेक्षा से सामान्य ज्ञान हुआ। सामान्य को ग्रहण करने के बाद 'यह चांदी का है या ताम्बे का' इस प्रकार संशय होने पर ईहा हुई, फिर अवाय में निश्चित हो जाता है कि 'यह घड़ा ताम्बे
सव्विंदिओवलंभे जइ संचारो मणस्स दुल्लक्खो।
एगिदिओवओगंतरंम्भि, किह होउ सुल्लक्खो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाया 2435 ' समयमणेगग्गहणे एगाणेमोवओगभेओ को।
सामण्णमेगजोगो, खंधावागेवओगोव्व।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2440 'उसिणेयं सीयेयं न विभागो नोवओगद्गमिळं। होज्ज समं दुगगहणं सामण्णं वेयणा मेति।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2443
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