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________________ हुआ है तो उसी में तन्मय हो जाता है, वह दूसरी सब बातें भूल जाता है। इसलिए एक साथ एक समय दो क्रियाओं का अनुभव असिद्ध है। एक साथ अनेक अनुभव होने से सांकर्य दोष प्राप्त होता है। जिस समय उपयोगमय आत्मा जिस वस्तु के उपयोग में रहता है उस समय वह सर्व आत्म-प्रदेशों से रहता है, कोई ऐसा प्रदेश नहीं बचता है जिससे वह दूसरी क्रिया का अनुभव कर सके।' दो क्रियाओं का एक साथ अनुभव भ्रान्ति के कारण होता है, जैसे - 100 कोमल पत्ते एक-दूसरे पर रखें फिर उन्हें तेज भाले से एकदम छेदा जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे एक साथ छिद गए। यह निश्चित है कि पत्ते क्रम से ही छिदते हैं, किन्तु समय की शीघ्रता के कारण ऐसा अनुभव होता है। इसी प्रकार आलातचक्र (जिसे लाठी के दोनों कोनों पर आग लगाकर घुमाने से बनाने वाला अग्निचक्र) घुमाने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह अग्नि का एक चक्र है जिसके चारों ओर आग फैल रही है, वास्तव में ऐसा नहीं है। यह निश्चित है कि दो क्रियाओं का उपयोगकाल भिन्न-भिन्न है। मन एक साथ दो इन्द्रियों या इन्द्रिय के देशों के साथ सम्बद्ध नहीं होता, किन्तु शीघ्रगामी होने से ऐसा भ्रम होता है कि वह सबके साथ सम्बद्ध है। जैसे - पापड़ खाते समय उसके शब्द, रुप, रस, गंध और स्पर्श का अनुभव एक साथ होता है, वास्तव में सभी ज्ञानों के क्रमशः होने पर भी एक साथ मालूम पड़ता है। उसी प्रकार शीत और उष्ण का स्पर्श पैर और सिर में क्रमिक होने पर भी एक साथ अनुभव होता है।' यदि एक साथ दो क्रियाओं का उपयोग होता है तो फिर अन्यमनस्क व्यक्ति को अपने सामने रही वस्तु का उपयोग क्यों नहीं होता? अथवा यदि दो वस्तु का उपयोग एक साथ होता है तो फिर दो क्रियाओं को ही क्यों मानते हैं? क्योंकि अवधिज्ञानी एक पदार्थ में अधिक से अधिक असंख्यात पर्याय और केवलज्ञानी अनन्त पर्याय को जानता है। इस प्रकार कई उपयोग होने लगेंगे। ' उवओगमओ जीवो, उववज्जइ जेण जम्मि जं काले। सो तम्मओवओओ होइ, जहिंदोव ओगम्मि ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2431 चित्तंपि दियाई समेइ, सम्मह य खिप्पचारित्ति। समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे सव्योवलद्धित्ति।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2434 458 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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