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धनगुप्त को वन्दना करने निकले, मार्ग में उल्लुका नदी थी, वे नदी में उतरे, ऊपर सूरज तप रहा था, नीचे पानी की ठण्डक थी। उन्हें नदी पार करते समय सिर को सूर्य की गर्मी और पैरों में पानी की ठण्डक का अनुभव हो रहा था। उन्होंने सोचा - आगमों में बताया है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं, किन्तु मुझे प्रत्यक्षतः एक साथ दो क्रियाओं का वेदन हो रहा है। गुरू को बात बतायी, उन्होंने समझाया किन्तु वे नहीं माने, तथा मिथ्यात्ववश द्विक्रियावाद की प्ररुपणा करने लगे। समीक्षा
पूर्वपक्ष - द्विक्रियावाद के अनुसार एक साथ दो क्रियाओं का अनुभव सम्भव है। जैसे कि पैरों में शीतलता तथा सिर पर गर्मी का अनुभव। उत्तरपक्ष-वीतराग जिनेश्वर का कथन है कि – एक साथ दो क्रियाओं का अनुभव नहीं होता है, बल्कि क्रम से होता है। समय अत्यन्त सूक्ष्म होने से तथा चंचल व मन की शीघ्रगमिता से ऐसी भ्रान्ति होती है कि अनुभव एक साथ ही हो रहा है।
मन अतीन्द्रिय पुद्गल स्कन्धों से निर्मित है, अतः वह सूक्ष्म है तथा शीघ्र संचरण स्वभाव वाला होने के कारण आशुगामी है। पदार्थों का ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रियों का मन के साथ सम्बन्ध होता है। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णादि द्रव्येन्द्रिय से जितने भाग तक मन का सम्बन्ध होता है, उस समय उतना ही ज्ञान होता है। इस कारण दूर और भिन्न देशों में रहो हुई दो क्रियाओं का अनुभव एक साथ और एक समय नहीं हो सकता।
- सिर और पैर के द्वारा एक साथ होने वाले शीतोष्णता का अनुभव बताया है, वह नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों भिन्न-भिन्न देश में रहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति विन्ध्याचल और हिमालय के शिखरों को एक साथ नहीं छू सकता है, उसी प्रकार भिन्न देशों के क्रियाद्वयवाद असिद्ध है।
जीव उपयोग लक्षण से युक्त है, वह जिस समय, जिस इन्द्रिय के द्वारा, जिस विषय के साथ संयुक्त होता, उस समय उसी का ज्ञान करता है। अर्थात् आत्मा एक समय में एक अर्थ में ही उपयोग लगता है। जैसे - कोई बालक मेघ के उपयोग में लगा
सुहुमासुचरं चित्तं, इंदियदेसेणं जेण जं कालं।
संवज्झइ तं तम्मत्तन्नाणहेउत्ति नो तेण।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2429 ' उवलभए किरियाओ जुगवं दो दुरभिण्णदेसाओ।
पाय-सिरोगयसीउण्हवेयणाणु भवरुवाओ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2430
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