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मानने पर ही सुख-दुःख, बन्ध और मोक्ष आदि घटित होते हैं। किसी एक को छोड़ देने पर समस्त व्यवहार का उच्छेद हो जाता है। 1
मात्र पर्यायार्थिक नय को मान लेने पर संसार में सुख-दुःखादि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी, क्योंकि जीव तो उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेगा। केवल द्रव्यार्थिक नय मानने से भी सुख - दुःखादि की व्यवस्था नहीं हो सकती । इस प्रकार द्रव्य और पर्याय दोनों को स्वीकार करना चाहिए ।"
इस वाद का खण्डन प्रयोगात्मक रूप से खण्ड- रक्षक श्रावकों ने किया। एक बार अश्वमित्र कम्पिलपुर पहुँचा। वहाँ पर समुच्छेदवाद की प्ररूपणा करने लगा। शुल्कपाल पद पर नियुक्त खण्डरक्षक श्रावकों ने उन्हें निह्नव जान कर मारना प्रारम्भ किया। भयभीत अश्वमित्र तथा उसके साथियों ने कहा तुम लोग श्रावक हो, हम साधुओं को क्यों मारते हो? तब श्रावकों ने पुछा तुम कहाँ जन्में? कहाँ पर दीक्षा ली? अश्वमित्र ने कहा मैंने अमुक समय पर अमुक आचार्य के पास दीक्षा ली। श्रावकों ने कहा वे तो उसी समय नष्ट हो गये, तुम साधु वेश में चोर हो। इस शिक्षा से अश्वमित्र ने अपना आग्रह छोड़
दिया ।
सारांश
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आगम के कथन को पूर्णरूप से समझ नहीं पाने के कारण अश्वमित्र ने यह निश्चय किया कि सभी जीवों का उच्छेद हो जायेगा, तथा पुण्य-पाप आदि की व्यवस्था नहीं रहेगी। जबकि आगम का कथन पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव नित्य है किन्तु पर्याय की अपेक्षा हर क्षण परिवर्तन होता रहता है। क्षणिकवाद के अनुसार सब वस्तुओं का परिवर्तन क्षण-क्षण में होता है, पर वे एकान्त रूप से मानते हैं जिससे कई समस्याएँ उपस्थित होती हैं।
आर्य गंग का द्विक्रिया उपयोगवाद और उसकी समीक्षा
द्वैक्रियवाद
क्रियवादी एक ही क्षण में एक साथ दो क्रियाओं का अनुवेदन मानते हैं। आर्य गंग इस मत के प्रवर्तक थे। एक बार आर्य गंग शरद ऋतु में आचार्य
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सुह- दुक्ख बंध मोक्खा, उभयनयमयाणुवत्तिणो जुत्ता ।
एगयरपरिच्चाए, सव्वववहारवोच्छित्ति ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2417
न
सुहाइ पज्जपमए नासाओ सव्वहा मयरसेव ।
न य दव्वट्ठियपक्खे, निच्चत्तणओ नभस्सेव ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2418
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