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ज्ञान किया, वह उसी समय नष्ट हो गया। इस प्रकार उत्तरोत्तर ज्ञान का पूर्व-पूर्व ज्ञान के साथ कुछ भी सम्बन्ध न होने से (तालमेल नहीं बैठने से) विचार विश्रृंखलित हो जायेगे।
दूसरा उदाहरण - शास्त्रज्ञान के लिए, पदज्ञान और अक्षरज्ञान आवश्यक है। अक्षर से उत्पन्न ज्ञान के सहयोग से पदज्ञान होता है। पदज्ञान से वाक्यों का ज्ञान होता है। प्रतिक्षण निरन्वयनाश (सर्वथानाश) मानने पर पदज्ञान या वाक्यज्ञान नहीं हो सकेगा। जिससे क्षणिकवाद को भी नहीं जान पायेंगे।
प्रत्येक समय में वस्तु का नाश मान लेने से भोजन से तृप्ति नहीं होगी। जो मनुष्य भोजन कर रहा है, उसकी क्षुधा शान्त नहीं होगी, क्योंकि भोजन करने वाला तो नष्ट हो गया है। इसी प्रकार श्रम, ग्लानि, साधर्म्य, विपक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, अध्ययन, ध्यान आदि कुछ नहीं हो पायेगा, क्योंकि इन सब में चित्त की स्थिरता आवश्यक है। .
यदि तृप्ति का कारण वासना को माने कि तृप्ति की वासना लेकर पूर्व-पूर्व क्षण से उत्तरोत्तर क्षण पैदा होता है और अन्त में उसी वासना के कारण तृप्ति अपनी क्रिया को पहुंच जाती है, क्षणिकपक्ष में ही तृप्ति हो सकती है, नित्य में नहीं, क्योंकि वह हमेशा एक सा रहता है।
यह कथन सम्मत नहीं है क्योंकि तृप्ति आदि का कारण वासना नहीं हो सकती। वासना को मानने पर पुनः प्रश्न उपस्थित होगा कि वासना क्षणों से भिन्न है या अभिन्न? यदि पूर्वक्षणों से अभिन्न है तब वह उन क्षणों के साथ ही नष्ट हो जायेगी फिर तृप्ति का अभाव रहेगा और भिन्न है तब तृप्ति नहीं हो पायेगी। यदि वह उत्तरोत्तर क्षणों में अनुवृत्त होती है तो पूर्व-पूर्वक्षण का सर्वनाश सिद्ध नहीं होता।
क्षणिकवाद की मान्यतानुसार संयम ग्रहण करना व्यर्थ है, क्योंकि दीक्षा लेने वाला तो उसी क्षण मर जाता है। अतः उसको दीक्षित होने पर भी कोई लाभ नहीं मिलेगा।
' न उ पइसमयविणासे, जेणेक्केक्कक्खरं चिय पयस्स।
संरवाइय समइयं, संखिज्जाई पयं ताई।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2402 'संखिज्जं पर्यवक्कं, तदत्थगहण परिणामओ होज्जा।
सव्वखणभंगनाणं, तदजुत्तं समयनद्धस्स।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2403 जेणचिय पइगासं भिन्ना, तित्ती तओ च्चिय विणासो। तित्तीए तित्तस्स य एवं चिय, सव्वसंसिद्धी।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2406 पुविल्लसव्वनासे वुड्ढी, तित्ती य किं निमित्ता तो। अह सावि तेऽणुवत्तइ, सव्वविणासो कहं जुत्तो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2407
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