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________________ पूर्वपक्ष पदार्थ को एकान्त क्षणिक मानते हुए यह मानें कि पदार्थ की सन्तान परम्परा के कारण प्रथम समय, द्वितीय समय का बोध होता है फिर भी यह कथन अयुक्त है, क्योंकि जहाँ पदार्थ का सर्वथा विनाश है वहाँ सन्तान परम्परा और समानता कैसे हो सकती है? तथा सर्वथा नाश (निरन्वय नाश) होने पर क्षणों का व्यवहार भी नहीं हो सकता ।' सन्तान परम्परा मानने पर कई प्रश्न उठते हैं कि सन्तान उन परिवर्तनशील क्षणिक पदार्थों से भिन्न है या अभिन्न? यदि अभिन्न है तो सन्तान भी पदार्थों के समान क्षणिक हुआ और यदि भिन्न है तो वह नित्य है या क्षणिक है? नित्य होने पर क्षणिकवाद नष्ट होता है और अनित्य मानने पर वह क्षण के ही समान है अतः पदार्थ का सर्वथा विनाश नहीं होता । 2 - सर्वथा विनाश मानने पर एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से समान भी नहीं हो सकता है, क्योंकि समानता वहीं होती है, जहाँ ध्रौव्य हो । पूर्वक्षण और उत्तरक्षण दोनों भिन्न हैं, जैसे घट और पट भिन्न हैं। यदि सर्वथा भिन्न पदार्थ में समानता होती तब संसार की समस्त वस्तुओं को भी उसके समान हो जाना चाहिए। यदि यह कहें कि संसार की समस्त वस्तुओं में देश - कालादि का अन्तर होना असमानता नहीं होती, किन्तु उत्तरक्षण तो पूर्वक्षण के साथ जुड़ा हुआ है, अतः समानता होती है। यह कथन भी अयुक्त हैं क्योंकि सर्वथा नाश मानने पर पूर्व और उत्तरशब्द का प्रयोग ही नहीं हो सकता। कोई पदार्थ स्थिर है तभी हम उसमें पूर्व-पश्चात् शब्द प्रयुक्त कर सकते हैं। 2 क्षणिकवाद को मानने पर कई समस्याएँ आती हैं, सर्वप्रथम 'यह वस्तु क्षणिक है' ऐसा ज्ञान कब होता है? हम अपना चित्त किसी विषय पर एकाग्र रखते हैं, तब शास्त्र का ज्ञान कर सकते हैं। यदि हर क्षण चित्त नष्ट होता रहे तब नये-नये चित्त के द्वारा शास्त्रों का ज्ञान कैसे हो सकता है? क्योंकि जिस चित्त और इन्द्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का 3 - अहवा समानुप्यत्ती समाणसंताणओ मई होज्जा । को संख्या विणासे, संताणो किं व सामण्णं विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2397 संताणिणो न भिण्णो जइ संताणो न नाम संताणो । अह भिण्णो न क्खणिओ, खणिसो वा जइ न संताणो । विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2398 पुव्वाणुगमे समखा होज्ज, ना सा सव्वहा विणासम्म । अह सा न सव्धनासे तेण, समं या नणु खपुष्कं विशेषावश्यक भाष्य गाथा 2399 Jain Education International 453 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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