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यदि जिनेश्वर भगवान पर तथा उनके वचनों पर आस्था है तो इन सब भ्रान्तियों को दूर करना होगा। जैसे कि उन साधुओं ने मुनिरूपी देव का वास्तविक रूप जान लिया, इसलिए उनको शंका हुई, यदि वह देव अपना वास्तविक रूप नहीं बताता तब कुछ भी पता नहीं चलता, अतः व्यवहारनय की अपेक्षा से सबको वन्दनादि करनी चाहिए । जिनेश्वर वीतराग का कथन निश्चय और व्यवहारयुक्त है, इसमें से किसी एक को नहीं मानने पर मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। स्थविरों ने उन शिष्यों को समझाने का प्रयत्न किया पर वे नहीं समझे, तब राजा बलभद्र ने प्रयोगात्मक रूप से समझाया ।
राजा बलभद्र ने जब यह विपरीत प्ररूपणा सुनी, तब उन्होंने आ. आषाढाचार्य के शिष्यों को सम्यक् पथ पर लाने का चिन्तन किया, राजा ने मुनियों को बुलवाया और सबको मरवा डालने की आज्ञा दी। साधुओं ने कहा प्राण क्यों लेते हो?
राजन् ! हम लोग साधु हैं, हमारे
राजा ने कहा कौन जानता है कि आप साधु हैं या चोर ? मुनियों ने कहा हमारे वेश, रहन-सहन और दूसरी बातों से आप जान सकते हैं कि हम साधु हैं। राजा ने कहा यह आप लोगों का मत है कि किसी भी बात पर विश्वास मत करो, फिर में आपको साधु कैसे मानूँ?
यह सुनकर उन मुनियों का भ्रम दूर हुआ और वे पुनः वंदन व्यवहार करने लगे । अश्वमित्र का समुच्छेदवाद और उसकी समीक्षा
समुच्छेदवादी एकान्त समुच्छेद का निरुपण करते हैं, वे प्रत्येक पदार्थ का सम्पूर्ण विनाश मानते हैं । अश्वमित्र ने इस मत की प्ररूपणा की ।
कोण्डिन्य का शिष्य अश्वमित्र अनुप्रवाद पूर्व में नैपुणिक नाम के अध्ययन को पढ़ रहा था । छिन्नछेदक नय का वर्णन चल रहा था “पडुप्पन्नसमयनेरइया सव्वे वोच्छिज्जिसंति एवं जाव वेमाणियत्ति एवं बीयाइसमएसुवि वत्तव्वं । " " प्रथम समय में उत्पन्न हुए नारकी के सभी जीव समाप्त हो जायेंगे, उसी प्रकार वैमानिक तक सभी समाप्त हो जायेंगे। इसी तरह द्वितीयादि क्षणों में भी नष्ट होंगे। इस कथन से उसे यह संदेह हुआ
1 पुडपन्न समयनेरइया
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वत्तव्वं । विशेषावश्यकभाष्य, पृ. 290
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