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बताकर कहा था उन शिष्यों ने प्रत्यक्ष देखा, इसलिए संदेह नहीं होता। यह तथ्य यदि मान्य है तो उसी प्रकार 'मैं साधु हूँ' और उसमें साधु के सभी गुण विद्यमान हैं इसमें असाधु का संदेह कैसे हो सकता है?'
यदि साधु-असाधु के प्रति शंका होती है तब जिन भगवान के वचनों में भी संदेह हो सकता है। क्योंकि जिनेश्वर भगवान ने कहा - सम्यक् आचरण वाले साधु कहलाते हैं, तो उन गुणों से युक्त साधु को वन्दना करनी चाहिए। जब यह जानते हैं कि प्रतिमा (मूर्ति) जिनेश्वर के गुणों से रहित है किन्तु परिणाम (भावों) की शुद्धि के लिए वन्दन करते हैं वैसे ही साधुओं को क्यों नहीं करते?
__यदि यह कहें कि देवाधिष्ठित असंयत यतिरुप धारी मुनि को वन्दन करने से असंयत के पाप की अनुमति होती है तब प्रतिमा को वन्दन करने से नहीं लगती है? और यदि अनुमति दोष लगता है तो फिर आहार-वस्त्र-शय्या आदि भी देवकृत है। इस प्रकार विचार कर उन्हें भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस प्रकार संदेह रखने से सब कार्यों का उच्छेद हो जायेगा।
यह भी हो सकता है कि कोई मुनि के वेश में मैथुन-सेवन करता हो या कोई गृहस्थ संयमी हो, ऐसे कपटी मुनि का संवास नहीं कर सकते, और ऐसे संयमी गृहस्थ को आशीर्वाद नहीं दे सकते हैं। किसी भी व्यक्ति को दीक्षा नहीं दे सकते हैं, क्योंकि यह ज्ञात नहीं है कि वह भव्य है अभव्य? चोर है या गुप्तचर? अव्यक्तवाद मान्यतानुसार किसी का उपदेश या शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि उसके वचन सत्य है या असत्य? कैसे ज्ञात हो पायेगा। सब पदार्थ संदेह के घेरे में आ जाने पर स्वर्ग-नरक, परलोक, मोक्ष किसी का अस्तित्व नहीं रहेगा।
तब्बयणाओ व मई नणु तब्बयण सुसाहुवित्तोत्ति।
आलयविहार समिओ, समणोऽयं वंदणिज्जो ति।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 'जह ता जिणिंद पडिम, जिणगुण रहियं त्ति जाणमाणरि।
परिणामविसुद्धत्थं वंदह तह किं न साहुंपि।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2365 'असंजयजइरुवे पावाणुमई मई न पडिमाए। नणु देवाणुगयाए पडिमाअपि हुज्ज सो दोसो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2367 जइणवि न सहवासो सेओ पमया- कुसीलसंकाए। होज्ज गिहीवि जइत्ति य तस्सासीसा न दायव्वा ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाया 2372 किं बहुणा सव्वं चिय, संदिद्धं जिणमयं जिणंदा य। परलोग-सग्ग-मोक्खा, दिक्खाए किमत्थ आरंभो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2375
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