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________________ आषाढ़भूति का अव्यक्तवाद और उसकी समीक्षा श्वेतविका नगरी के पौलाषाढ़ चैत्य में आर्याषाढ़ नाम के आचार्य ठहरे हुए थे । उनके बहुत से शिष्यों ने अगाढ़ - योग नाम का उग्र तप शुरु किया। आयुष्य समाप्त हो जाने से उसी रात को हृदयशूल द्वारा उन का देहान्त हो गया। कालधर्म प्राप्त कर वे सौधर्म देवलोक के नलिनीगुल्म नाम के विमान में देव हुए। गच्छ में कोई भी उनकी मृत्यु को नहीं जान सका । उन्होंने अविधज्ञान द्वारा जाना कि इस अगाढ़ योग को पूर्ण कराने वाला कोई नहीं है, अतः साधुओं पर दया करके वे मृतदेह में प्रवेश करके वाचना देने लगे । जिस प्रकार आचार्य ने कहा वैसे-वैसे शिष्यगण करते रहे। उन्हें शास्त्र के अनुसार उद्देश्य, समुद्देश और अनुज्ञा के लिए आज्ञा दी। इस प्रकार दैवी प्रभाव से शिष्य समूह का कालविभंगादि विघ्नों से रक्षा करते हुए योग पूर्ण करवा दिया। योग व तप पूर्ण होने पर आचार्य रूपी देव ने देवलोक जाते समय शिष्यों से क्षमा मांगते हुए कहा • आप मेरा अपराध क्षमा करें, क्योंकि मैंने असंयत, अविरत होते हुए भी संयती व व्रती से वन्दना करवाई। ऐसा कहकर वध्देव अपने स्थान पर चला गया। तत्पश्चात् आचार्य के शरीर को वोसिरा दिया, पर वे साधु चिन्तन करने लगे कि हमने कई दिनों तक असंयती को वन्दना की, किन्तु हमें बोध नहीं हुआ। इस प्रकार कपट युक्त, कोई दूसरा साधु भी हो सकता है? संयत कौन और असंयत कौन? व्रती कौन, अव्रती कौन ? यह ज्ञात नहीं होता इसलिए किसी भी साधु को वन्दना नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अविरत को वन्दना करने पर दोष लगता है। इस प्रकार वे साधु अव्यक्त दृष्टि वाले हो गये, और उन्होंने परस्पर में वन्दना व्यवहार छोड़ दिया। इस प्रकार उनका यह दृष्टिकोण अव्यक्तवाद के नाम से जाना गया ।' समीक्षा इस तथ्य की शोध करने पर ज्ञात होता है कि यह अव्यक्तवाद हर वस्तु, व्यक्ति व पदार्थों में संदेह उत्पन्न करायेगा, क्योंकि कोई भी बात विश्वसनीय नहीं है। हम जीवित हैं या मृत, ऐसा भी संदेह हो सकता है। जब उस देव ने कहा कि 'मैं देव हूँ' तो उस देव के प्रति भी संशय कर सकते हैं कि वह देव था या नहीं? यदि उसने स्वयं देव रुप 1 को जाणइ किं साहु, देवो वा त्तो न वंदणिज्जेति । होज्ज असंजयनमणं, होज्ज मुसावायममुगोत्ति ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2358 Jain Education International 449 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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