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________________ तिष्यगुप्त अपनी मान्यता का प्रचार करते हुए आमलकल्पा नगरी पहुँचे, वहाँ मित्रश्री नामक श्रमणोपासक रहता था। वह धर्मोपदेश सुनने गया। तिष्यगुप्त ने अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया, उसने जाना कि ये मिथ्या प्ररूपणा कर रहे हैं। एक दिन तिष्यगुप्त भिक्षा के लिए मित्रश्री के घर गये, तब मित्रश्री ने अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ रखे, उसमें से चावल का एक दाना, और वस्त्र के अन्तिम छोर का एक तार निकाल कर उन्हें दिया । तिष्यगुप्त ने कहा श्रावक! तुम मेरा अपमान कर रहे हो। मित्रश्री ने कहा महाराज! यह तो आपका ही मत है कि वस्तु का अन्तिम अवयव पूर्ण वस्तु का काम कर सकता है। यदि चावल का यह अन्तिम अंश भूख नहीं मिटा सकता है तो जीव के अत्यन्त सूक्ष्म एक प्रदेश में सारा जीव कैसे रह सकता है?' वस्त्र का अन्तिम तन्तु वस्त्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि उससे शीत-निवारण कार्य नहीं होता। अगर बिना वस्त्र का कार्य किए भी अन्तिम तन्तु को वस्त्र कहा जाये तो घड़े आदि को भी वस्त्र मान सकते हैं अन्त्य अवयवी ज्ञात नहीं होता है, अनुभव में नहीं आता है, तथा प्रत्यक्ष अनुमान और आगम से भी सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार मित्रश्री ने उसे समझाया । | सारांश तिष्यगुप्त ने आत्मप्रदेशों में चरम आत्मप्रदेश को जीव माना, उसके अनुसार व्यवहार नय में कहा जाता है कि गाँव का थोड़ा सा भाग जलने पर यह कहते हैं कि गाँव जल गया, एक देश में सम्पूर्ण वस्तु को स्वीकार कर लेते हैं, वैसे ही जीव के चरम अर्थात् अन्तिम प्रदेश में भी यह मान सकते हैं। पर शास्त्रों में यह बताया है कि सभी प्रदेशों का एकीकरण ही जीव है, अन्तिम प्रदेश को जीव मानने पर तो प्रथम प्रदेश भी उसी प्रकार जीव कहा जावेगा। जैसे मात्र एक तन्तु को कपड़ा नहीं कहा जा सकता, वैसे ही चरम प्रदेश या प्रथमप्रदेश को जीव नहीं माना जाता। जिस हेतु से चरमप्रदेश में जीवत्व की सिद्धि की जाती है, वैसे ही प्रथमादि प्रदेशों में भी की जा सकती है। इस प्रकार तिष्यगुप्त एक नय के द्वारा सिद्धान्त को ग्रहण किया, जिससे वह मिथ्या प्ररूपणा हो गई। 1 भक्खण- पाण-वंजण-वत्थंतावयवलाभिओ भणइ । सावय विधम्मियाऽम्हे कीसति तओ भगइ सहये। विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2349 * पच्चक्खओऽणुमाणा, आगमओ वा पसिद्धि अत्यानं सव्वधमानविसायइयं मिच्छत्तमेवं मे। विशेषावश्यकभाष्य गाया 2354 Jain Education International 448 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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